पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/६४६

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ज्ञान प्राणज प्रत्यतात्मक भान होता है। मधुर प्रादि रम जानेगा कि, जो पशु गो-महश होगा, गवय गन्दमे घोर तहन मधुरत्वादि जातिमे गमन, नीलपोनादि रूप उमोको समभाना चाहिये। जिमको यह नहीं मान म पोर उन रूपों में यक्त पदार्थोकी नौनव पोतत्व प्रादि कि गवय गन्दा गवा पशुका बोध होता, विनय पति तथा उन रम्पविशिष्ट पटायाँको क्रियामे पातुर, उमई दृष्टिपथमें गवय पाता है, तब वह उसको गोन उगादि स्पोर माहा म्स विशिष्ट व्यादिमे माक्रतिको गो मग देख कर तथा पूर्व युत गौ मदृश त्वाच, गद पोर तहत वर्गव ध्वनित्व चादि नासिमे | गवय है, इस वाक्यका म्मरण कर ममझेगा कियहो यावगा, तथा मुख और दुग्याटि पारमयत्ति गुप्पमे प्रारमा। गव्य है हम प्रकार के गययशद के मतपरिच्छेदको पौर सुखत्वादि जातिमे मानम प्रत्यक्षात्मक ज्ञान पोता| उपमिति जान कहा जा मकता है। शब्दमे जो जान होता है, उसको शरदभान कहते ___व्याप्य पदार्य को देख कर व्यापक पदार्थ का जो है। जैसे-गुरुके उपदेश वाक्यको तनकर छावको 'जान होता है. उमको अनुमितिजान कहते हैं। जिम | उपदिष्ट अर्थ का गादसान होता है। यह गाग्दमान पदार्थ के रहने मे जिम पदार्य का प्रभाव नहीं रहता, दो प्रकारका है एक दृष्टाधे क पौर दूमरा अटार्थक । नसको उमका व्यापक कहते हैं। जैसे-किसो जगह जिम शब्दका अयं प्रत्यक्षसिह है उमको हटायक पोर भो अग्नि के बिना धुनां नहीं रह सकता. इमगिए | जिमका अर्थ हान है, उसफो अदृष्टाय क कहते हैं। धुमा अग्निका व्याप्य है घोर जिम जगह या नहीं। इसका उदाहरण इस प्रकार है - तुम गोरे होतुम्हारी होता यहां अग्निका प्रभाव नहीं है. इसलिए अग्नि | पुस्तक बहुत अच्छी है' इत्यादि प्रत्यक्षामिहचानको धमका व्यापक है। अतएव लोगोंको पर्षत आदि पर दृष्टार्थ क शादमान करते हैं, चोर 'यन करनमे स्वर्ग धूम टेख कर यतिका अनुमानात्मक ज्ञान होता है। मिलता है' 'विशुपूजा करनेमे विष्णुको नीति होती है' या अनुमानामक जान तोन प्रकारका है-पूर्य वत् । इत्यादि विधियाय पोर वेदवाक्य प्रादिक पदृष्टार्थक गेपयत् और मामान्यतोदृष्ट । कारणदर्शनमें कार्य के साम्दभान हैं, वे सब इन जानों के अन्तर्गत है। (न्याय. पगुमानको पूर्ववत् अर्थात् फारनिङ्गक भान करते | दर्शन ) प्रमाण देखो। है। जैसे-मेघकी उपतिको देख कर इष्टिका अनुः वेदान्त मत प्राय स्वय' मानवरूप है, यद्यपि घट- मानामक भान । कार्य को देख कर घारगके अनुः | मानमे पटनान भिवई पोर तुम्हाग मान मेरे मानमे मान को शपवत् र्थात् कालिङ्गक ज्ञान कहते हैं. भिव है, इस प्रकारके भेद ध्यपहारको देखकर मानका ते -नंदोको अत्यन्त सृद्धिको देख कर दृष्टिका अनु। नानात्वदी स्पष्ट प्रतिपय होता है पीर भो जानकी मानात्मक जान। कारण और कार्य को छोड़ कर केवन याबरूपता या ममत ग्रानी ऐश्वमाधक कोई युक्ति व्याप्य यसको देख कर जो अनुमानात्मक भान होता | पापाततः हरिगीचर नहीं होतो. किन्तु तो भो वियेक- उमे मामान्यतो जान कहते हैं। जमे-गगनः | बुदिमे देखा जाय तो मालूम होगा कि विषयस्वरुप मगइल में सम्पर्ण चन्द्र को देख कर शक्रपतका मान ।। उपाधिके नानात्व कारण हो मानके मानावका भ्रम क्रियाको कारण बना कर गुपका अनुमान, पृथियोत्व होता है। वास्तवमें भान नाना नहीं, एक की। जागिको हेरा मना कर दृश्यत्वजातिका मान इत्यादि । जिम प्रकार एक हो मुख तनमें प्रतिविम्यित होने पर तिमो किसो गादक फिसो किमो पर्थ में शशिपरि एक प्रकारका पोर जन प्रतिविम्बित होने पर मरे पदही उपमिलिशान करते है ।जसे-जिम प्यक्तिने | प्रकारका देखने लगता है, पर वास्तवमें मुखौ कुछ पालेभो गया नहीं देखा, किन्तु मुगा कि गो । भेद नहीं. जस पोर न हो एयर मान प्रतिकरण, मदृय गवय (पर्यात् जिमको पातति गोके ममान |उमो प्रकार उपाधिको विभिनता होने मे मानमें विभि- मको गयय करते हैं वह व्यक्ति उस समय रतना! पताको प्रतीत होती है। Vol. VIII. 141