पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/९

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जन्द-अगस्ता मो ममुयोंको व्याधि दूर कर रहे हैं । ( लगता है। पग्निष्टोम यजम चार छागोको बलि दी जार्ता ईरानके धर्म में कब उसने एक प्रधान स्थान अधिकार है, मासका कुछ पंश पम्निमें डाला जाता है, कुछ पंग किया है। उनका विद्याप्त है कि ये पहले ईरान के राज' यजमान और पुरोहित भत्तय करते हैं। किन्तु इजिय • थे । हिन्दूधर्म के उगमग या शकके साथ इनके नामका | यतमें छिर्फ एक सांड़को देहसे कुछ रोम'उखाड़ कर मादृश्य है। ऋग्वेदमें इन्द्रका काव्य उगनाके नामसे | अग्निको दिखाते हैं। पूर्यकालमें पारमी लोग भी इस ' समेख किया गया है। (पा ४२ )जन्दपवस्ताम | उपलक्षमें मांसका व्यवहार करते थे। वैदिक पुरोडास लिखा है कि कम-3ग प्रत्यन्त उपकारी होने पर भो बड़े जन्दवस्ताम दरुण पपा है। इस प्रकार वेदके उप- अभिमानी थे। उन्होंने एफयार स्वर्गको उड़ना चाहा सट समयको दुग्धव्यवहारविधि जन्दावस्ता गाश था और इसी लिए उन्हें कठोर दा मिला था। वैदिक जोय काय हारविधि परिपत हो गई है। हिन्दगण काव्य-उगना मानवजातिके महापुरोहित थे। ये स्वर्ग को जिस प्रकार यादिको पवित्र करने के लिए पञ्चगम्य गायोंको मैदानमें ले गये थे पोर इन्ट्रको गदा बनाई थी। व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार पारसो लोग भी गोमत वेद और जन्दप्रयस्ता दोनों ही ग्रन्थों में, जिनके काममें लाते हैं, इसके सिवा घे हिन्दु पोको भांति यनोप साथ युद्ध करना पड़ता था उनको दामय कहा गया है। वोत ग्रहण करना भी कर्तव्य कार्य समझते हैं । उपवी.. जन्दप्रयस्ताके तिम्रो का उपास्थान वैदिक इन्ट्र तके विना दोनों ही समाजमें कोई भी वाक्ति यथार्थ स्थान और हस्पति सम्बन्धी कुछ उपाख्यानों मे साहश्य रखता) को नहीं पाता। हिन्दु प्रोंमें उपवोत पहपका समय पाठ वर्षसे सोलह वर्ष निति हुपा है पोर पारसियोंमें उस वेद और जन्दमयस्ताकी यहविधि-वर्तमान समय में पार का काल मातवें वर्षमें ही कहा गया है। दोनो जाति मियों की याविधि परयन्त संमिल होने पर भी उसमें पोंको नोकिक जियायो विषयमें भी थोड़ा बहुत .. वैदिक यन के साथ सादृश्य पाया जाता है। पहले हो | माश्य देख पड़ता है। पारसो लोग मृत्यु के बाद तीसरे दोनों ग्रन्थों में, तुलना करनेवाले पाठको की दृष्टि पुरो- दिन मत पामाको सातिके लिए प्रार्थना करते हैं हितके नामकी समानता पर पड़ती है। जन्दमयस्ताम | और ग्राह्मणों को भाति उनके यहां भी दसवें दिन पनु- . पुरोहित शब्दके अभिप्रायमें 'पाथ व' शब्द का प्रयोग ठान मादि सम्पद होता है। ' ... किया गया है जो वैदिक नाम अथर्वन् शब्दका | हिन्दुयोंकी तरह पारसियोंने भी पथिवोको सात ही रूपान्तर है। यदिक गद ईष्टि (कुछ देवतापों का | भागों में विभक्त किया है और सबके बीच एक पर्वत पुरोडस सहित पाषाहन) पोर पाहुति जन्दः (मेरु) का अस्तित्व माना है। . अयस्ता ईष्टि पोर पा-जुपति के रूपमें व्यपरत हैं। ___ येद थोर जन्दभवस्ताका परस्पर विरोप-दर्भ देव पूज्य परन्तु जन्दपवस्तामें उक्त दोनों शब्दों का अर्थ 'दान' माने गये हैं और अवस्ता पसर। इससे स्वत: इस बात या 'सप्ति' यतनाया गया है। यत के पुरोहितो में वदिक का पता लग जाता है कि उपरोल सादृश्य रहने पर भी होता पोर पध्वयु के स्थान पर इसमें जापीता पौर दोनों में यपेर विरोध था। विधानों का अनुमान है कि रएयि गप्दका सा मिलता है। किसो समय हिन्दू पोर पारसी दोनों एक ही स्थानमें । ___ वैदिक ज्योतिष्टोम यधर्मे जिन कार्याका प्रमुछान रहते थे और एक धर्म के पाय जोवन वितात थे। पोता, उनमेसे अधिकांश पारमियों के यजिय वा जिन्य | | हिन्दू पहले खेतो-यारो न करते थे, परापालन तारा . यन्नमें सम्पय होते हैं। पग्निहोवोमें पायायकोय पग्नि । मोविका निर्वाह करते थे। जव एक अगदहणादि घट टोम या के माथ सम्दपवम्ताके इलिय यमका विशेष जाते थे तो वे दूमरी जगह चले जाते थे। पण्डितप्रवर माग | किन्तु पारमियों में प्रचलित यजिन याके | मिदोगका अनुमान है कि पारमियों के पुरला बहुत सम्पादन करनेम पग्निष्टोमजी अपेक्षा बहुत थोड़ा समय! अन्दो इस तरहको जीवनयात्रामे मिरज हो गये। वे