पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/११

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मुद्रा विभगण जो कलमसे लिखते वा मुद्रासे जो अङ्कित गरुडपुराणमें लिखा है-शुचि व्यक्तिको ही सभी करते तथा शिल्पगंण जो निर्माण करते उसका सर्वदा कामों में अधिकार है। किन्तु यह शुचित्व हरिके आयु- पाठ और धारण करना चाहिये। धादि धारण किये विना प्राप्त नहीं होता।* "लेखन्या लिखितं विप्रमुद्राभिरक्षितञ्च यत्। . शिल्पादिनिर्मितं यच्च पाठयं धार्यञ्च - सर्वदा ॥ पद्मपुराणके उत्तरखण्डमें लिखा है-शङ्खचक्रादि (मुगटमालातन्त्र चिह्न हरिका प्रियतम है। इन सब चिह्नोंसे जो व्यक्ति ६ पञ्चमकारके अन्तर्गत भृष्ट द्रध्यभेद, तान्त्रिकोंके अपने अडाको भूपिन नहीं करता, वह सब धर्मोसे भ्रष्ट हो अनुसार कोई चुना हुआ अन । नन्नमें भूने हुए चिउड़े, चावल, गेहू और ननेको मुद्रा कहा है। यह मुद्रा मुक्ति केवल पुराणादि शास्त्र में हो नहों, स्मृति आदिमें भी देनेवाली है। विष्णुको अर्चनाके समय शलवक्रादि चिह्न धारण करने- "पृथ्मास्तगदुल्ला भृष्टा गोधूमचणकादयः । ' की विधि है । जैसे,- तस्य नाम भवेदं वि ! मुद्रा मुक्तिप्रदायिनी ॥" "धृतोद्ध'पुषः कृतचक्रधारी विष्णु परं ध्यायति यो महात्मा। (निर्वाग्मतन्त्र ११ पटल) स्मरेण मन्त्रेण सदा हदि स्थितं परात्परं यन्महतो महान्तम् ॥ उक्त मुद्राको निम्नोक्त दोनों मन्त्रोंसे शोधन कर (यजुर्वेद कठशाखा) लेना होता है। मन्त्र इस प्रकार हैं,- . "एभिर्वयमुरुक्रमस्य चिन्हैरक्षिता लोके शुभगा भवेम । "ओं तद्विष्याः परमं पदं सदा पश्यन्ति गरयः तद्विष्णोः परमं पदं ये गच्छन्ति लाञ्छिता इत्यादि ।" दिवीव चक्षुराततम् । (अथर्ववेद) भों तद्विपासो विप्रपयवो जारवासः समिन्धते मुद्राधारणका माहात्म्य। विष्पोयत् परमं पदम् ॥" पुराणादि धर्मशास्त्रोंमे मुद्राधारणको बहुत-सी ७ गोरखपंथी साधुओंके पहननेका एक कर्णभूषण। ' माहात्म्य-कथाएं लिखी हैं। वाहुल्य-भयसे उसमेंसे यह प्रायः फांच वा स्फटिकका होता है। कानको लो- । थोडासा यहां लिखा जाता है। स्कन्दपुराणमें सनत्कु- के बीचमें एक बड़ा छेद करके यह पहना जाता है। ८' मार और मार्कण्डेय-संवादमें लिखा है, जो विष्णुभक्त मुखको आकृति, चेहरेका ढंग। ६ अगस्त्य ऋषिकी स्त्री, ; । व्यक्ति शङ्खचक्रादि चिह्नसे चिह्नित होते हैं, उनका विष्णु- लापामुद्रा। १० वह अलङ्कार जिसग प्रत या मgo लोकमें वास होता है और कोई आधि व्याधि उन्हें नहीं' अर्थके अतिरिक्त पनमें कुछ और भी साभिप्राय नाम | उसकती। जिनका शरीर नारायणके आयुध चिहसे निकलते हैं। ११ विष्णुके आयुधोंके चिह्न जो प्रायः भक्त भूपित है, कोटि पाप करने पर भी उनका यम कुछ नहीं' लोग अपने शरीर पर तिलक आदिके रूपमें अङ्कित करते | कर सकता। इसी प्रकार शङ्ख, चक्र, गदा मादि चिह्न- या गरम लोहेसे दगाते हैं। भगवानको प्रसन्न करने धारण करनेसे भी अनन्त फलोंको प्राप्तिकी बात के लिये उक्त नारायणी मुद्रा या चिह्न धारण करना होता | लिखी हुई है। भगवान कहते हैं, इस कलिकालमें जो है। मत्स्य कूम आदि चिह्न तथा चक्रादि आयुध चिह्न धारण करके हरिकी आराधना करना उचित है। मुद्रा वा चिह-धारणकी नित्यता।

  • "सकर्माधिकारन शुचीनामेव चोदितः ।

हरिकी अर्चना करनेसे पहले दोनों वाहुमें शङ्क शुचित्वञ्च विजानीयान्मदीयायुधधारणात् ॥" (गण्डपु.) और चक्रका चिह्न लगाना चाहिये, नहीं तो वह पूजा • "शङ्खचक्रादिभिश्चिद विप्रः प्रियतमै हरेः । फलदायक नहीं होती। रहितः सर्वधर्मभ्यः प्रच्युतो नरकं ब्रजेत् ॥" , "अक्षितः शङ्खचक्राभ्यामुभयो/हुमूलयोः। (पद्मपु० उत्तरमा० ) समयेदरि नित्यं नान्यथा पूजनं भवेत् ॥" (स्मति)