पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१२

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मुद्रा मनुष्य मेरो पुरीसे मट्टी ला कर उससे अपने अङ्गों पर मेरे । केवल शडचिह्न धारण करना निपिद्ध है। इसलिये मत्स्य-कूर्मादि अवतार-चिह्न अङ्कित करता है मैं उसके वैष्णवोंको चक्र मिश्रित शङ्खचिह्न धारण करना चाहिये। शरीरमें अवस्थान करता हूं, उसमें और मुझमें कोई भेद | उक्त चक्रादि मुद्राएं केवल गोपीचन्दन द्वारा हो प्रतिदिन नहीं रहता। वह जो भी कुछ पाप करता है, पुण्य- अपने अपने अङ्गों पर अङ्कित की जाती हैं। शयन आदि रूपमें परिणत हो जाता है। करते समय इन चिन्होंको गरम कर लेना चाहिये। शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, मत्स्य और कूर्म आदि चिह्न (ब्रह्मवै०पु.) शरीर पर अङ्कित होनेसे दिनों-दिन पुण्यको वृद्धि होतो ___हरिभक्तिविलासमें लिखा है, द्वादशाक्षर षट्कोण है और शत जन्मार्जित पाप क्षय होते हैं। . और तीन वलययुक्त चक्र, दक्षिणावर्त शङ्ख और लोक- (स्कन्दपुराण) | प्रसिद्ध गदापद्म आदि चिह्न धारणोय हैं। ___ स्कन्दपुराणके ब्रह्मा और नारद-संवादमें लिखा है,-- विष्णुशक्तिपरायण वैष्णव और वेदपारग ब्राह्मणको भक्त मनुष्य शङ्ख-चिह्न धारण करे तो लक्ष्मी, सरखती, | गोपीचन्दन द्वारा सतिल मुद्रा धारण करना चाहिये। (नारदपञ्चरात्र) दुर्गा और सावित्री ; पद्मचिह्न धारण करे तो गङ्गा, गया, कुरुक्षेत्र, प्रयाग और पुष्करादि ; गदाचिह्न धारण करे तो ___ पद्मपुराणमें लिखा है, चन्दनादि द्वारा कृष्णनामा- गङ्गासागरसंगम तथा गदोके नीचे चक्रचिह्न धारण करे क्षर शरीर पर लगानेसे विष्णुलोककी गति प्राप्त होती तो कृष्ण-सहित चराचर लैलोक्य, विविध अग्नि, समस्त है, तथा यदि अग्नितप्त चक्रचिह दोनों वाहुमूलोंमें अङ्कित देवता और विष्णुके पादत्रय उसके शरीरमें वास करके अपने इष्टमन्त्रका जप करें, तो वे संसारवन्धनसे मुक्त हो जायें। (पद्मपु०) करते हैं। हारोतके मतसे वसन-भाजन आदि सभी वस्तुओं ___ उक्त मुद्राओंको धारण करके दैव, पैत्रा, नित्य, नैमि- त्तिक और काम्यकर्मादि करनेसे वे सब अक्षय हो जाते हैं | पर कृष्ण नाम अङ्कित करना उचित है। "तन्नाम्ना चाङ्कित सर्व वसन भाजनादिकम् ॥ तथा अष्टाक्षराङ्कित धातुमयी मुद्रा हाथमें धारण करने (हारीतस्मृति) से प्रह, नक्षत्र और राशि आदिकी कोई पोड़ा नहीं हो | ६ देवता-विशेषको प्रीतिजनक अंगुल्यादि रचना सकती। मुद्रा शब्दकी व्यत्पत्तिके सम्बन्ध तन्त्रसारके मुद्राप्रक- ___ इसके सिवा स्कन्द और वराहपुराण आदिमें कृष्णा- रणमें लिखा है, मुद्राएं देवताओंका आनन्द वढ़ा कर मुद्रा वा चिह्न धारण करनेके और भी बहुतसे माहात्म्य सर्वप्रकार पापोंका निवारण करती हैं, इसीलिए तन्त्रज्ञ लिने हैं। मुनियोंने इसका मुद्रा नाम निर्देश किया है। .. - मुद्रा धारण करनेकी विधि । (तन्त्रसा० मू०प्र०) गौतमीय तन्त्रमें लिखा है, ललाट पर गदा, मस्तक सभी तन्त्रोंने मुद्रा-वन्धनके विषयमें अनेक गुप्त और पर चाप और शर, हृदयमें नन्दक, भुजाओंमें शङ्ख और व्यक्त उपदेश दिये हैं। परन्तु गुरुगम्य न होनेसे केवल चक्रचिह्न धारण करना चाहिए । वैष्णवोंको दक्षिण वाहुमें पुस्तकोंको सहायतासे ये मुद्रा-वन्धन प्रकृतिरूपसे नहीं चक्र, वाम और दक्षिण वाहुमैं शङ्ख, वाममें गदा, उसके होते। . मुद्रा-रचनाके विषयमें गुरुजनोंका उपदेश ग्रहण नीचे फिर चक्र, शडके ऊपर पद्म, वक्षस्थलमें खडग तथा| करना आवश्यक है। मुद्रावन्धन पुरःसर अर्चनादि मस्तकमें चाप और शर धारण करना उचित है । ब्राह्मणी-|करनेसे देवता प्रसन्न हो कर अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। को चाहिए कि दक्षिण भुजामें सुदर्शन, मत्स्य और पद्म | इसलिए भक्त साधक पूजकोंके लिए मुद्रा-रचना जानना तथा वाई भुनामें शङ्ख, कूर्म और गदाका चिह्न धारण | तथा पूजा-कालोन मुद्रा-विशेष प्रदर्शन करना अवश्य करें। कोई कोई सिर्फ शङ्ख और चक्र इन्हीं दो मुद्राओं- कर्तव्य है। मुद्रा किस किस समयमें आवश्यक है, को धारण करते हैं। (गौतमीय ) इस विषयमें तन्त्रमें इस प्रकार लिखा है ;- Vol. XVIII. 3