पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१३

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अर्चना, जपकाल, ध्यान, काम्यकर्म, स्नान, आवा- अभिषेक कार्यमें कुम्म-मुद्रा, आसनमें पद्म-मुद्रा, वित्र हन, शङ्खस्थापन, प्राणप्रतिष्ठा, रक्षण, नैवेद्य तथा अन्यान्य | प्रशमनकार्यमें कालकणी, तथा जलशोधनमें गालिनी-मुद्रा कल्पोक्त कार्य, इन्हीं स्थलों पर अपना अपना लक्षण- विधेय है। गोपालकी वेणुमुद्रासे, नृसिंहको नारसिंही युक्त मुद्राओंका प्रदर्शन करना आवश्यक है। मुद्रा- मुद्रासे, वराहदेवकी वाराहीसे, हयग्रीवको हायप्रीवसे, समष्टिमें आवाहनी आदि नौ मुद्राएं हैं, उक्त नौ मुद्रा रामकी धनु और वाण-मुद्रासे तथा परशुरामको सम्मो. और षडङ्ग मुद्रा सर्वसाधारणके नामसे कहो गई हैं। हन मुद्रासे पूजा करनी चाहिए। आवोहनमें वासुदेव, अर्थात् उक्त पन्द्रह मुद्राएं सर्वत्र ही आवश्यक है। रक्षाविषयमें कुम्भ तथा प्रार्थनाके समय सर्वत्र प्रार्थना (तन्त्रसार) | मुद्राका प्रयोग करना उचित है। (तन्त्रसा०) अव कौन-कौनसी मुद्रा किन किन देवताके लिए इसके अलावा और भी अनेक प्रकारकी मुद्राओंका प्रीतिकर और किस किस विषयमें आवश्यक हैं तथा उन्लेख है। उनका वर्णन लक्षण सहित क्रमशः किया किस प्रकार मुद्रा बनाई जाती है इत्यादि विषयों पर जायगा। पहले उल्लिखित मुद्राओंकी रचनाप्रणाली लिखा जाता है। लिखी जाती है। देवतादिके भेदसे मुद्राभेद। मुद्राके लक्षण वा रचनाप्रपाली। शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, वेण, वत्स, कौस्तुभ, पहले जो आवाहनी आदि नौ साधारण मुद्रा वनमाला, शान, विप, गरुड़, नारसिंह, वाराह, हयग्रोव, कहीं गई हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-आधाहनी, धनुः, वाण, परशु, जगन्मोहन और काम, ये उन्नीस स्थापनी, सन्निधापनो, संवोधनी, सकलीकृति या मुद्रायें विष्णुके लिए सन्तोपकर हैं। लिङ्ग योनि, | सकलीकरण, सम्मुखीकरणी, अवगुण्ठन, धेनु और महा- त्रिशूल, माला, वर, अभय, मृग, खट्टाङ्ग, कपाल और मुद्रा। ये नौ मुद्राएं देवताके आवाहन-कार्य में प्रयोग डमरू ये दश मुद्राएं शिवके लिए प्रीतिकर हैं। सूर्याकी की जाती हैं। एक मात्र पद्ममुद्रा है और गणेशको पूजामें दन्त, पाश, दोनों हाथोंकी अञ्जलि मिला कर दोनों हाथोंकी अंकुश, विघ्न, परशु, लबट्टक और वोजपुर ये सात | अनामिकाकी जड़को अंगूठोंसे आवद्ध करनेसे आवाहनी मुद्राएं प्रशस्त हैं ; पाश, अंकुश, वर, अभय, खड्ग, चर्म, मुद्रा होती है। इस प्रकार उक्त आवाहनी मुद्राकृत धनुः, शर और भूपल ये नौ मुद्राए दुर्गाकी पूजामें दोनो हस्तकी अञ्जलिको अधोमुख कर देनेसे ही स्थापनी प्रशस्त हैं। विशेषतः ये मुद्राए शक्ति देवताओंको अति मुद्रा वनती है। दोनों हाथों को मुट्टो बांध कर प्रिय हैं। लक्ष्मीको पूजामें लक्ष्मीमुद्रा तथा सरस्वतीको अंगूठोंको भीतर रखकर अधोमुख करनेसे सम्वोधनी पूजामें अक्षमाला, वोणा, व्याख्या और पुस्तकमुद्रा आव. हुई . सम्वोधनी मुष्ठिओंको उत्तान करनेसे सम्मुखी- श्यक है। अग्निकी अर्चनामें सप्तजिहा मुद्रा प्रशस्त है।। करणी हुई , देवता, अङ्ग पर पड़ङ्गन्यासको सकली- मत्स्य, कूर्म, लेलिहान, मुण्ड और महायोनि थे | करण कहते हैं ; वायें हाथमें मुट्ठो वांध कर तर्जनीको मुद्राएं सर्वसमृद्धिप्रद हैं। इनमेंसे शक्ति देवताको लम्बो फैला कर अधोमुख नामित करनेसे अवगुण्ठन पूजामें महायोनि, श्यामा देवताको पूजामें मुण्ड तथा मुद्रा हुई। दोनों हार्थोकी अंगुलियोंको परस्परकी सर्वसाधारण विषयमें मत्स्य, कूर्म और लेलिहान सन्धिओंमें डाल कर एक हाथकी कनिष्ठाके अप्रभागके प्रशस्त है। तारा विद्याकी अर्चनामें योनि, भूतिनी, साथ दूसरे हाथकी अनामिकाका अप्रभाग मिला देनेसे वीज, दैत्यधूमिनी और लेलिहान ये पक्ष मुद्राएं प्रसिद्ध तथा उसी तरह तर्जनीके अग्रभागके साथ मध्यमाको हैं। त्रिपुरासुन्दरीको अर्चनामें क्षोमिनी, द्वाविणो, मिला देनेसे धेनुमुद्रा बनती है। इस मुद्रा द्वारा पूजा करते आकर्षिणो, वश्या, उन्मादिनी, महांकुशा, खेचरी, बोज, | समय पूजाके नैवेद्यादि उपकरणोंसे अमृतीकरण किया योनि और विखण्य इन दश मुद्राओंकी आवश्यकता है। जाता है। इसके आतरिक्त दोनों हाथोंके अंगूठोंको