पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१६

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मुद्रा मध्यमा और अनामिका, इन अंगुलियोंको सीधी तरहसे। योनि, भूतिनी और वीजमुद्राका उल्लेख पहले किया मिला दो। यह मुद्रा शङ्कस्थापनके समय शसके ऊपर जा चुका है। अब तारादेवीकी अन्यान्य मुद्रायें वतलाई चालित की जाती है। कुम्भमुद्रा-दाहने हाथके | जाती हैं। धूमनीमुद्रा-दोनों हाथोंको स्पष्टरूपसे परि- अंगूठेको वायें हाथके अंगूठेसे वांध कर दोनों हाथोंकी | वर्तन करके दोनों कनिष्टाओंके द्वारा दोनों मध्यमाओंको मुट्ठो बांध लो। इस मुट्ठोके भीतर कुछ पोल रखनो आकर्षण और बादमें दोनों अनामिकाओंको पृथक् पृथक चाहिए। इसका प्रकारान्तर-दोनों हाथोंकी मुट्टियां ; अधोमुन्न रख कर परस्परको निविड़ भावसे वांध कर वाँध कर दोनों अंगूठोंको ऊर्ध्वमुख तर्जनियोंके अन- अंगूठाके अग्रभागमें अनामिकाको मिला दो। यह भागमें रखनेसे भी कुम्भमुद्रा होती है। प्रार्थनामुद्रा- मुद्रा साधकको भव-वन्धनसे मुक्त करती है। लेलिहान- दोनों हाथोंको सामने रख कर समस्त अंगुलियोंको , मुद्रा-मुख विकृत करके अधोमुख जिह्वाको परिचालन परस्पर मिला कर अपने हृदय पर रखो। अञ्जलि- करना और दोनों हाथोंकी मुद्रा दोनों ओर स्थापन करना। मुद्रा- हाथों से बनाना। इस मुद्राको किसी-किसीने ! यह मुद्रा तारादेवीकी आराधनाके लिए प्रशस्त है । वासुदेवाख्यमुद्रा भी कहा है। कालकर्णीमुद्रा दोनों ही स्त्री ह" इन पंच वीजोंको उच्चारण करके हाथों को मुट्ठी बांध कर सामने रखो और दोनों अंगूठो। तारादेवीकी पञ्च मुद्राएं वांधनी चाहिए। प्रकारान्तरसे को ऊंचा उठा कर संलग्न करो। तर्जनी, मध्यमां और अनामिकाको समान भावसे अधो- विस्मयमुद्रा-दाहने हाथसे ढ़रूपसे मुद्रावन्धन पूर्वक मुख रख कर अनामिकामे अंगूठेको रखना और कनिष्ठा- उसी हाथकी तर्जनी नासिकाके आगे रखो । नादमुद्रा- को सीधी रखना । इस मुद्राका प्रयोग जोवन्यासमें दाहने हाथके अंगूठेको ऊंचा उठा कर मुद्रा वांधो। होता है ।. महायोनिमुद्रा-दायें हाथको तर्जनीके साथ विन्दुमुद्रा-दाहने हाथसे मुद्रावन्धन करके अंगूठे और । वायें हाथकी तर्जनी, इसी तरह मध्यमासे मध्यमा, तर्जनीका परस्पर संयोजन करो । संहारमुद्रा-वाये अनामिकासे अनामिका और कनिष्ठासे कनिष्ठा मिला हाथको अधोमुख और दायेको ऊर्ध्वमुख रख कर दोनों । कर दोनों कनिष्ठाओंके मूलमें अंगूठा मिलाना। हाथोंकी अंगुलियोंको परस्पर प्रथित करके हाथ बदलो। ___ इसके सिवा वामकेश्वरतन्त्रमें भी मुद्राएं और यह मुद्रा विसर्जन कार्यमें प्रयुक्त होती है। मत्स्यमुद्रा- उनके लक्षण दिये गये हैं । इन सब मुद्रा-रचनाओंसे दाहिने हाथको अधोमुख रख कर उसकी पीठ पर वाई' त्रिपुरादेवीका सान्निध्य होता है। तन्तसारोक्त मुद्रा- हथेली रखो और दोनों अंगूठोंको परिचालित करो। प्रकरण कह चुके । अब देखना चाहिए कि अन्यत्र कूर्ममुद्रा-वायें हाथको तर्जनोमें दायें हाथकी कनिष्ठा मुद्रा सम्बन्ध में क्या लिखा है। . और दायें हाथको तर्जनोमें बायें हाथका अंगूठा मिला ___घेरण्डसंहिताके तृतीय उपदेशमें पच्चीस सिद्धिदायिनो कर दाहने हाथके अंगूठेको ऊंचा करके रखना तथा मुद्रा, उनके लक्षण और फलोंका वर्णन किया गया है। वायें हाथको अनामिका और मध्यमाको दायें हाथकी उक्त मुद्राए योगाभ्यासरत व्यक्तियों के लिए बहुत ही पीठ पर रखो। फिर वायें हाथके पितृतीर्थ पर अर्थात् शुभकर हैं। योगपरायण साधु पुरुप इन मुद्राओंका तर्जनी और अंगूठेके मध्य भागमें दायें हाथको मध्यमा यथायथ भावसे अनुष्ठान करें तो सर्वप्रकार आधिव्याधि- और अनामिकाको अधोमुख मिला कर दायें हाथको हाथसे उन्हें छुटकारा मिल सकता है और वे सुदुर्लभ पीठ पर कूर्मपृष्ठकी तरह उन्नमन करो। यह देवताके सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। नीचे उन मुद्राओंका वर्णन ध्यानमें प्रयुक्त होती है। मुण्डमुद्रा-बायें हाथकी दिया जाता है। मुट्ठी बांध कर उसके भीतर वामागुष्ट घुसा दो, पीछे दायें हाथको मध्यमाके आधार पर तर्जनी आदि अंगु- ___ मुद्राओंके नाम-महामुद्रा, नभोमुद्रा, उड्डीयान, लियोंको परस्पर मिलानके वाद वाम मुद्रामें संयुक्त जलन्धर, मूलवन्ध, महावन्ध, महावेध, खेचरी, विपरीत- करके दक्षिण भागोंमें प्रदर्शन कराओ। करी, योनि, वञिणी, शक्तिचालिनी, ताड़ागी, माण्डवी, Val, xvI114