पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१८

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मुद्रा वत्रिणी-दोनों हथेलियोंसे भूमितल अवलम्बन करके। है। जो इस मुद्राको जानते हैं वे ब्रह्मा, विष्णु और दोनों पैर ऊपरको और मस्तक शून्य रखो। अपनी शक्ति- शिवमय हुआ करते हैं। का उपचय और दीर्घ जीवन प्राप्त करनेके लिए मुनियों पूर्वोक्त पांच धारणामुद्रा यथा-पार्थिवी, आम्भसी; ने इस मदाके अभ्यास करनेका उपदेश दिया हैं। इसके | आग्नेयी,वायवी और आकाशो। पोर्थिवी-हरिताल-रनित अभ्याससे योगियोंकी सर्वविध हितसिद्धि और मुक्ति भौम लकारान्वित चतुष्कोण तत्त्वपदार्थको ब्रह्मा सहित तक होती है। हृदयमें स्थिर करके, उसमें पांच घंटे तक प्राणोंको शक्तिचालिनी-आत्मशक्ति परमदेवी कुण्डली ' विनयन पूर्वक धारणा करना चाहिए। इससे क्षिति- भुजङ्गिनीके मूलाधार पर शयन करती हैं। जब तक ये जय और मृत्युजय हो कर सिद्धि प्राप्त होती है। शरीरके भीतर निदावस्थानमें हैं तव तक जीव पशुके | आम्भसी-शङ्ख इन्दु और कुन्दके समान धवल समान है। हजार योग करने पर भी उसके ज्ञानोदय | पीयूषमय वकारवीजके साथ सर्वदा विष्णु-अधिष्ठित शुभ नहीं होता। सहसा कवाट खोलनेके समान कुण्डलिनी- जलतत्त्वमें पांच घण्टे तक प्राणोंका विनयन पूर्वक प्रवोधन द्वारा ब्रह्मद्वार उद्घाटन किया जाता है। इस धारण करो। इससे दुःसह ताप दूर होता और घोर कार्य में शक्तिशालिनी मुदाको आवश्यकता है। सबसे छिप गभीर जलमें भी कभी मृत्यु नहीं होती। यह गोपनीय कर किसी एक गुप्त गृहमें अनग्न अवस्थामें रह कर एक | है, प्रकट करनेसे सिद्धिमें हानि होती है। वस्त्रखण्ड द्वारा नाभिदेश सवेष्टित करना चाहिये । उक्त आग्नेयी-जो इन्द्रगोपके समान त्रिकोणान्वित तेजो- वस्त्रखण्ड एक विलश्त लम्वा, चार अंगुल चौड़ा मय प्रदीप-तत्त्व रुद्र के साथ नाभिदेशमें अवस्थित है, तथा मृदुल, धवल और सूक्ष्म होना चाहिये। उसमें पाँच घण्टे तक प्राणोंका विनयन पूर्वक धारण इसके बाद कटिसूत्र-वेएन और भस्म द्वारा करनी चाहिए। इसके अभ्याससे भीषण कालभय दूर शरीर लिप्त करके सिद्धासन पर बैठ कर नासा द्वारा होता और प्रज्वलित अग्निमें भी साधककी मृत्यु नहीं वायु आकर्षण करके जोरसे अपानमें योजन करना होती। चाहिये। जब तक सुपुग्णामें जा कर वायु प्रकट वायवी-भिन्नाञ्जननिभ और साथ ही धूम्राभ यकार न हो तब तक वक्ष्यमाण अश्विनी मदा द्वारा धीरे धीरे गुह्यदेश .आकुञ्चन करना उचित है। सहित ईश्वराधिष्ठित सत्वमय जो तत्त्व है, उसमें पांच इसके बाद वायुरोध-पूर्वक कुम्भक तथा कुम्भकके फलसे घण्टे तक प्राणोंका धारण करना, वायवी मुद्रा है। उसी समय भुजङ्गिनी रुद्धश्वास हो कर ऊर्ध्वपथ अव- इससे योगी आकाश-गमनमें समर्थ होता और उसकी लम्वन करेगी, इसोका नाम शक्तिचालनी मुद्रा है। इसके मृत्यु नष्ट हो जाती है। भक्तिहीन, शठ और कपटी विना योनिमुद्रा सिद्ध नहीं होती। योनिमुद्रा अभ्याससे व्यक्तिके सामने इसे प्रकट न करना चाहिए। जन्म-मरण आदि पर विजय प्राप्त कर अनायास सिद्धि ____ आकाशी-हकार-वीजमें अन्वित सदाशिव द्वारा प्राप्त होती है। ताडागी---उदरको पश्चिमोत्तान करके अधिष्ठित और सुनिर्मल सागरके जलके समान जो तड़ागाकृति करना । इससे जरामृत्यु दूर होती है। परम व्योमतत्त्व है, उसमें पांच घंटे तक प्राणोंकी विनयन माण्डकी मुंह मूंद कर जिह्वा चलाना और धीरे पूर्वक धारणा करो। इसके अभ्यासले मृत्युका नाश धीरे सहसार-निःसृत अमृत ग्रहण करना । इसके अभ्यास और प्रलयकालमें भी उसके शरीरमें अवसाद नहीं से स्थिरयौवन प्राप्त होता और दलीपलित तथा केश होता। पक्वता आदि दैहिक विकृति नहीं होती। अश्विनीमुद्रा-गुदद्वारका पुनः पुनः आकुचन शाम्भवी-नेत्राञ्जनसमालोकनपूर्वक आत्मारामका | और प्रसारण । इसके अभ्याससे गुह्यरोग और अकाल- निरीक्षण करना। यह मुद्रा कुलवधूके समान गोपनीय | मरणका नाश होता है।