पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१९३

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मूढ-मूढगर्भ मूढ़ (सं० त्रि०) मुह-क्क । १ मूर्ख, बेवकूफ । २। आर शरीर कुछ वक्र और नितम्व देश तिर्यग-भावमें रह स्तब्ध, निश्चेष्ट। ३ वाल, जो सयाना न हो। ४ जिसे कर योनिमुखमें ठहरता है। किसीके वक्ष, पार्श्व और आगा-पीछा न सूझता हो, उगमारा। (क्ली०) ५, पृष्ठ इन तीनों से कोई एक अङ्ग पहले अपत्यमुखमें मा मूर्छा। कर योनिमुखको रोकता है। फिर किसीके अपत्यपथके मूढगर्भ (सं० पु०) गर्भज रोगभेद, गर्भस्रावादि रोग । इस-1 पाव भागमें स्वतन्त्र भावसे मस्तक रहता है और सिर्फ के निदानादिका विषय सुश्रुतमें इस प्रकारं लिखा है,- एक बाहु वाहरमें देखी जाती है, किसीका मस्तक कुछ ग्राम्यधर्म. सवारी द्वारा पथश्रम, प्रस्खलन, पतन, धारण, वक्रभावमें अपत्यपथके पार्श्वभागमें रहता है तथा दोनों अभिघात, विपरीत भावमें सोना वा वैठना, उपवास, वाहु देखो जाती हैं। किसीका समूचा शरीर वक्र- मलमूत्र-वेगके प्रतिघात, रुक्ष, कटु तिक्तभोजन, साग या भखमें रहता है तथा हाथ, पांव और शिर अतिशय क्षारसंचन, अतिसार, वमन, विरेचन, दोलन, । यही सव अंग पहले देखे जाते हैं। किसीका अजीर्ण वा गर्भशातन (गर्भस्त्राव कराना) आदि कारणों। एक पांव अपत्यपथमे और दूसरा पायुवेशमें रहता है। से वृन्तवन्धनच्युत फलकी तरह गर्भका बंधन शिथिल मूढगर्भ रोगमे विशेषत: प्रसवकालमें ये आठ प्रकारको हो जाता है। गर्भका बंधन शिथिल होनेसे समान वायु अवस्थाएं हुआ करती हैं। इनमेंसे शेपोक्त दो अवस्था गर्भाशयको अतिक्रम कर यकृत और प्लीहाके अन्ति असाध्य है। बाकी सभी अवस्थाओंमें इन्द्रियानका विवरमें घुस जाती और कोष्ठदेशको मथ देती है। इससे वैपरीत्य, आक्षेप और अपत्यपथका संरोध अथवा मक्कल्ल जठरदेश आलोड़ित होनेके कारण प्रयुक्त अपान वायु ' नामक रोग उत्पन्न होता है। इन अवस्थाओं में श्वास, निश्चेष्ट हो कर पाव, वस्ति, शीर्ष, उदर, योनिदेशमें शूल, ' कास वा भ्रमके द्वारा पीड़ित होनेसे रोगीको परित्याग भानाह और इन सबके मध्य कोई एक उपद्रव उत्पन्न करना ही उचित है। कर गर्भको नष्ट कर डालती है। तरुणगर्भ शोणितस्राव. वायुजनक द्रव्यसेवन, रात्रिजागरण, मैथुन प्रभृति के द्वारा विनष्ट हो जाता है। गर्भ बढ़ कर प्रसवकालमें ' अहिताचारोंसे गर्भिणीके अपत्यपथमें वायु कुपित हो जब प्रवेशपथ पर नहो आता अथवा अपान वायु द्वारा घर उस पथके द्वारको रोक देती है अर्थात इससे वायु प्रतिहत होता है, तब उसे भी मूढ़गम कहते हैं। भीतरमे रह फर गर्भाशयके द्वारका रोकती है। इससे यह मूढगर्भ चार प्रकारका है,-कोल, प्रतिखुर, वोजक गर्म पीड़ित होता और गर्भस्थ बालकका श्वासरोध और परिघ । वाहु, शिर और पैर ऊपरकी ओर तथा शरीर हो कर गर्भनाश होता है.तथा हृदयदेशमे पोड़ा उत्पन्न नोचेकी ओर रह कर जव कीलको तरह योनिमुखको होनेसे गर्भिणीके भी प्राणनाश होनेको सम्भावना है। रोक रहता है, तब उसे कोल ; एक हाथ, एक पैर और इसको योनिलम्वरण कहते हैं। शिर निकल कर शरीर रुक जाता है, तब उसे प्रतिखुर वन्ध्या स्त्रियों का आर्शव शोणित अच्छी तरह नहीं एक हाथ और शिरके निकलनेको वीजक तथा भ्रणके निकलनेसे वह शोणित कुशिदेशमें सञ्चित हो कर रक्त- परिघको तरह योनिमुखको आवृत्त रखनेसे उसे परिध विद्रधि रोग उत्पन्न करता है। पुत्रवतो स्त्रीको यदि इस कहते हैं। प्रकारका रोग हो, तो उसे 'मकल' रोग कहते ९, वायु कोई कोई यही चार प्रकारके मूढगर्भ बतलाते है, पर कुपित हो कर जव अपत्यपथको बंद कर देतो है, तव शोणित अच्छी तरह न निकल कर क्रमशः कुक्षिदेशमे यह युक्तिसंगत नहो है। क्योंकि, जब कुपित वायु द्वारा पीड़ित हो कर वह गर्भ अपत्यपथमे भिन्न भिन्न आकार सञ्चित ही कठिन हो जाता है, इसीसे इस रोगको प्रकारमें रहता है, तब किसी गर्भके दो और किसी- उत्पत्ति होती है। इस समय रोगोके कुक्षिदेशमें अत्यन्त के सिर्फ एक सक्थि कुछ वक्रभावमें निकलनेके लिये शूलवेदना होती है। कालक्रमसे फल जिस प्रकार स्वभावतः डंठलसे योनिमुखके आगे आ जाते हैं।, फिर किसीका सक थि