पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१९७

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मूत्र अपवित्र होता है, किन्तु गोमूत्र अपवित्र नहीं | पाण्डुरोगनाशक, कटु, तिक्त और कुछ वायुका प्रकोप- होता। वैद्यकशास्त्र में मूत्रके गुणादिका विषय इस प्रकार, कारक। लिखा है,-गाय, भै'स, वकरा, भेड़ा, घोड़ा गदहा और मेषमूत्र-कास, प्लीहा, उदर, श्वास और शोषरोग ऊंट इन सब जानवरोंका मूत्र तीक्ष्ण, कटु, उष्णा, तिक्त नाशक, मलसंग्राहक, लवण, तिक और, कटुरस, उष्ण पोछे लवणरस, लघु, शोधनकर, कफ, वात, कृमि, मेद, और वातनाशक । विष, गुल्म, अर्श और उदररोग, कुष्ठ, शोफ, अरुचि, अश्वमूत्र-अग्निवृद्धिकर, कटु, तीक्ष्ण और उष्ण, . और पाण्डुरोगमें शान्तिकर, हृदय और अग्निवर्द्धक वात और पित्तविकारनाशक, कफघ्न, कृमि और दद्रु. माना जाता है। रोगनाशक । ___गोमूत्र-कटु, तीक्ष्ण, उष्ण, फिर भी क्षारयुक्त होने- हस्तिमूत्र-तिक्त और लवणरस, भेदक, वातघ्न, के कारण वायुका प्रकोपकारी नहीं, लघु, अग्निवद्धक, पित्तप्रकोपक और तीक्ष्ण । पवित्र, पित्तवर्द्धक, वातश्लेष्माका शान्तिकर, शाल, गुल्म,। गर्दभमूद-तीक्ष्ण, अग्निकर, मि, वात और कफ- उदर, आनाह आदि रोगों में तथा विरेचन, आस्थापन' का शान्तिकर, गरल, चित्तविकार और ग्रहणीरोगमें विशेष आदि मूत्रसाध्य कार्या व्यवहार्य और प्रशस्त है। उपकारक । माहिपमूत्र-अश, उदर, शूल, कुष्ठ, मेह, आनाह, करभमूत्र-शोफ, कुछ, उदररोग, उन्माद, वायुरोग, शोफ, गुल्म और पाण्डुरोगमें हितकर। अर्श और कृमिरोगनाशक । छागमूत्र-कास सौर श्वासहारी, शोप, कमला और मानुपमूत्रमें पूर्वोक्त सभी गुण हैं तथा यह विषनाशक -! माना जाता है। (सुत्रु त सूत्रस्था मूत्रवर्ग) यद्यकवस्त्रो यज्ञोपवीतं करें कृत्वा अवगुपिठत इति। अनिसंहितामें लिखा है, कि वैद्यकशास्त्रने जहां मूत्र- करणं दक्षिणकर्ण। शाख्यायनः । पानकी व्यवस्था दी है वहां बकरे और गायका मूत्र ही छायायामन्धकारे वा रागावहनि वा द्विजः। प्रशस्त है तथा भेड़े, मैंसे और घोड़े का मूत्र तैलपाक यथा सुखमुखः कुर्यात् प्राणावाधन भयपु च ॥ स्थानमें व्यवहत होता हैं। न मूत्र पथि कुर्वीत न भस्मनि न गोबजे । "अजागवीगतं मूत्र पाने शस्तं भिषज्वर । न फालकृष्ठे न जले न चित्यां न च पर्वते ॥ भाविक माहिपञ्चाश्वं तैलपाक विधीयते ॥ (३०) न जीर्यादेवायतने न वल्मीके कदाचन । भूत्रपरीक्षास्थलमें लिखा है, कि वायुकी वृद्धि होनेसे न ससत्त्वेपु गपु न गच्छनापि सहितः ॥ मूत्र पाण्डुवर्णका, पित्तको वृद्धि होनेसे रक्त और नील- न नदीतीरमासाद्य न च पर्वतमस्तके । वर्ण का, कफकी वृद्धि होनेसे धवल और भाग दे कर वायग्निविप्रानादित्यमपः पश्यस्तथैव गाः । पेशाव उतरता है। न कदाचन कुर्वीत विन्मूत्रस्य विसर्जनम् ॥ मूत्रपरिक्षो। 'नच सोपानात्को मूत्रपुरीपे कुर्यात् । (इत्यापस्तम्बः) "वातेन पाण्डुरं मूत्र' रक्त नीलश्च पित्ततः। "करगृहीतपात्रेण कृत्वा मूत्रपुरीपके। रक्तमेव भवेप्रक्तात् धवन फेनिलं कफात् ॥" (भावप्र०) वातादिक विगड़नेसे मूत्रमें दोप दिखाई देता है। मूत्रतुल्यन्तु पानीयं पीत्वा चान्द्रायणाचरेत् ॥ इसके लक्षणादिका विषय वैद्यक प्रन्थमें इस प्रकार वारिपात्र' करे कृत्वा मत्र त्यजति यो नरः। सुरापात्रसमं पात्र तजलं मदिरासमम् ॥" (आहिकतत्व)| लिखा है। रोगों वा वातादि दोषोंको निरूपण करनेमें भूत्र "निःस्वाः सशब्दमत्राः स्युपा निःशब्दधारया। परीक्षा भी विशेष उपयोगी है। निर्दिष्ट लक्षणानुसार भोगाढ्याः समजठरा नि-स्वाः स्युर्घटसन्निभाः ॥' (गरुडपु० ६३ अ०)। मूत्रके वर्ण वा अन्यान्य विषयोंको विकृतिविशेष द्वारा