पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/१९८

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दोषभेद निश्चय करनेको मूत्र परीक्षा कहते हैं। चार थोड़े से रोग ऐसे हैं जिनमें मूत्र लक्षणका कुंछ विशेष दण्ड रात रहते विछावन परसे उठ कर पेशावकी पहली | लक्षण निर्दिष्ट है, जैसे-ज्वरादि रोगमें इसकी अधिकता धारा वाहर निकाल दे, उसके बाद जो पेशाव उतरेगा रहनेसे मूत्र ईखके रसके समान, जीर्णज्वरमें छागमूत्रके उसे कांचके वरतन रखे। यही पेशाव परीक्षाके योग्य | समान और जलोदर रोगमें घृतकणाके समान पदार्थ है। परीक्षा करते समय उसे धार वार हिलावे और दिखाई देते हैं । मूत्रातिसाररोगमें मूत्र अधिक निकलता उसमें एक एक वुद करके तेल डाले। हैं और उसे रखनेसे उसका निचला भाग लाल मालूम प्रकृतिभेदसे मूत्रका वर्ण-वातप्रकृति व्यक्तिका स्वा- होता है। आहार जोर्ण होने पर मूत्र स्निग्ध और तेल- भाविक मूत्र सफेद, पित्त प्रकृतिका और पित्त-श्लेष्म की तरह होता है। अतएव अजीर्ण रोगों मूत्रमें विप. प्रकृतिका तेलके समान, कफप्रकृतिका आविल, वात रोत लक्षण दिखाई देता है । क्षयरोगमें मून काला श्लेष्म प्रकृतिका घना और सफेद तथा रक्तवातप्रकृतिका होता है और यदि सफेद दिखाई दे, तो समझना चाहिये मूत्र कुसुम फूलके रंगके जैसा होता है। रोगविशेषके कि रोग असाध्य है। प्रमेह रोग, मूत्रमें नाना प्रकार- अन्यान्य लक्षण दिखाई नहीं देने पर केवल इसी प्रकार | को भिन्नता देखी जाती है । मूत्रविज्ञान शब्दमें मूत्र- मूत्रपरीक्षा करें। इससे किसी प्रकार पीडाको आशङ्का परीक्षाका सविस्तर विवरण दिया गया है। नहीं रहती। मप्रविज्ञान देखो। दुषित मूत्रका लक्षण-वातदुष्ट मूत्र स्निग्ध, पाण्डु वायु, पित्त, कफ सन्निपात, अभिघात, अश्मरी वर्ण अथवा श्यामवर्ण अर्थात् कृष्णपोतवर्ण अथवा | और शर्करा आदि कारणोंसे मूलदोष होता है । कोष, अरुणवर्णका होता है । इस मूत्रमें यदि थोड़ा तेल डाला | मूत्रनाली और वस्तिमें दर्द दे कर बड़े कप्टसे थोड़ा जाय, तो उसमेंसे मूत्रके फफोले ऊपर उठते हैं। पेशाव उतरनेसे उसे वायुज मूत्रदोष ; पीला वा लाल पित्तदुष्ट मूत्र लाल होता है, तेल डालनेसे उसमेसे भो | मूत्रकोष, सूत्रनाली और वस्तिदेशमें जलन दे कर पेशाव फफोले निकलते हैं। श्लेष्मदुष्प मूत्र फेनयुक्त और आनेसे पित्तज मूत्रदोष ; कोप, मूत्रनालो और वस्तिदेश- आविल तथा आमपित्त दूषित मून सफेद सरसों तेलके मे दर्द देने तथा स्निग्ध, शुक्ल और अनुष्य पेशाव उतरने- समान होता है । वात पित्त द्वारा दूषित मूतमे तेल से उसे श्लेष्मल मूत्रदोष कहते हैं। मूत्रवाही स्रोतपथ- डालनेसे उसमेंसे श्यामवर्णके वुवुद् उठते है । वायु के क्षत वा अभिहत होनेसे अत्यन्त वेदनायुक्त मूत्रदोष और श्लेष्मा इन दोनों दोपोंसे दृषित मूत्रमें तेल डालने होता है तथा उसमें वात और वस्तिरोगकी तरह सभो से वह मूत्र तेल के साथ मिल कर कांजोको तरह दिखाई | लक्षण दिखाई देते हैं। पुरीपके वेग रोकनेले वायु- देता है। श्लेष्मा और पित्त द्वारा दुषित मूत्र पाण्डुवर्ण विगुण तथा उससे उदराधमान और शूलके साथ मूत्ररोध का होता है। होता है। अश्मरी-जन्य एक और प्रकारका मूत्रदोष सान्निपातिक दोष अर्थात् वात, पित्त और श्लेष्मा | होता है। शर्करा और अश्मरीकी उत्पत्तिका कारण इन तीनों दोषोंसे मूत्र दूषित होने पर वह लालया काला | एक ही है। भेद इतना ही है, कि शर्करा पित्तसे पाक दिखाई देता है। पित्तप्रधान सन्निपात रोगीका मूत्र | हो कर वायु द्वारा छोटे छोटे आकारों में खण्डित होतो किसी वरतनमें बंद रखनेसे उसका ऊपरी भाग पीला है तथा श्लेष्मा द्वारा उसका अवयव तैयार होता है। और निचला भाग काला मालम होता है। वातप्रधान शकरा जन्य मूत्रदोपमे हृत्-पीड़ा, कम्प, कुक्षिदेशमे शूल सन्निपातमें मध्य भाग काला और कफाधिक सन्निपात तथा अग्निमान्ध आदि उपद्रव होते हैं । इससे मूर्छा और मे मध्यभाग सफेद दिखाई देता है। मूत्राघात होता है। मूत्रनालीके मुखस्थित छोटे शर्करा- प्रायः सभी रोगों इस प्रकार लक्षणका विचार कर , खण्डोंके निकल जानेके बाद जब तक दूसरा खण्ड उस रोगके दोषभेदका पता लगाना आवश्यक है। केवल जगह नहीं आ जाता, तब तक वेदना साम्य रहती है।