पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२०२

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मूनिरोध-मूत्रविज्ञान मूत्रनिरोध (सं० पु०) मूत्रस्य निरोधः यद्वा मूत्रं निरुण-| द्वारा आमाशयसे वस्तिदेशमें मत्र लाया जाता है उसे द्धीति रुध-अण् । मूत्रप्रतिबन्धक रोगविशेष । इस रोगमें | मनवहा नाड़ी कहते हैं। मूत्ररोध होता है। 'पक्वाशयगतास्तत्र नाड्यो मनवहास्तु याः । "पिष्ट व मालतीम लं ग्रीष्मकाले समाहृतम् । तर्पयति सदा म तं सरितः सागरं यथा ॥ साधितं कागदुग्धेन पीतं शकरयान्वितम् । सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते मुखान्तासां सहस्रशः। हरेन्म निरोधञ्च हरेद्वै पागड्डु शर्कराम् ॥" नाड़ीमिरुपनीतस्य मूत्रस्यामाशयान्तरात् ॥" (गरुडपु० १६१ अ.) (सुश्रुतनि० ३ १०) प्रीष्मकालमें मालतीका मूल उखाड़ कर उसके रेशे- नदी जिस प्रकार जल ले कर सागरको ओर दौड़ती को अच्छी तरह पीस कर वकरीके दूधमें पाक करे । वाद में चीनीके साथ उसका पान करनेले मूत्रनिरोध, पाण्ड है, पक्वाशयगत मूत्रबहा नाड़ियां भी उसी प्रकार वस्ति- और शकरो विनष्ट होती है। में मूत्रवहन करती हैं। जो सब नाड़ियां आमाशयके मध्य हो कर मूत्रवहन करती हैं अत्यन्त सूक्ष्मताके कारण मूत्रपञ्चक (सं० क्ली० ) मूत्राणां पञ्चकम् । पञ्चविध मूत्र, उनका मुख दिखाई नहीं देता। जाग्रत वा स्वप्नावस्थामें पांच प्रकारका मत । "गवामजांना मेपीनां महिषीयाञ्च मिश्रितम्। उस नाड़ी हो कर मूत्र बह कर मूत्राशयमें भर जाता है। मूत्रेण गर्दभीनाञ्च तन्मतं मूत्रपञ्चकम् ॥" ( राजनि०) मूत्रविज्ञान-जिस ज्ञानबलसे मूत्रके नाना भेद और गोय, वकरी, भेडी और गदही इनके सूत्रोंको मूल- दोपादोप जाने जाते है वही मूत्रविज्ञान है । महर्षि जातु- पञ्चक कहते हैं। कर्णने 'मूत्रविज्ञान' नामक एक आयुर्वेदीय ग्रन्थकी मूत्रपतन (सं० पु० ) मूत्रस्य पतन मस्मात्, पुरीष निरोध रचना की है। वर्तमान सदोमें यूरोपीय चिकित्सा शास्त्र करणादस्य सततसूत्रपतनात् तथात्वं । ५ गन्धमार्जार, हीका अधिक प्रचार और आदर देखा जाता है। यूरोपीय गंधविलाव । २ मूत्रका पतन, मूत्र गिरना। चिकित्सक रोग निदानके लिये अनेक स्थलों में मूत्र- मूत्रपुट (सं० क्ली० ) मूनस्य पुटं। नाभिका अधोभाग, | को परीक्षा करते हैं। वे मूत्रके उपादानभूत पदार्थों की मूत्राशय। परीक्षा कर शारीरिक धातुको स्वच्छन्ता मालूम कर लेते 'नाभेरधो मूत्रपुटं मस्ति मूर्ती शयोऽपिच ।' ( हेम ) हैं। पाश्चात्य प्रणालीसे शिक्षित चिकित्सकगण भी मूत्रपथ (सं० पु०) मूत्रस्य पन्था। योनि । रासायनिक प्रक्रिया द्वारा मूत्रमे किस किस पदार्थका मूत्रप्रसेक (संपु०) मूत्रनाली। कितना कितना अंश है, उसे कह सकते हैं। आज कलंके मूत्रफला (सं० स्त्रो०) मूत्र मूत्रवर्द्धनं फलं परिणम वैद्य उस प्रकार मूनपरीक्षा करनेमें विलकुल अक्षम हैं। मस्या;। १ फर्कटो, ककड़ी। २ नपुषी, खीरा। । इस कारण जनसाधारणको विश्वास है, कि आयर्नेदके मूत्रवीजक (सं० पु०) असनवृक्ष । प्रन्थकार मूत्रपरीक्षा प्रणालीका हाल अच्छी तरह नहीं मूवरोध (सं० पु०) मूत्रस्य रोधः । मूत्रकृच्छ रोग, एक- जानते थे। वे लोग केवल मूत्रके परिमाण, वर्ण और वारगी पेशाव रुक जानेको रोग। गन्धको सहयतासे बहुत कुछ शारीरिक यन्त्रकी प्रक्रिया- मूत्तल (सं० क्ली०) मूत्रं लाति गादत्ते वर्धयतीत्यर्थः का पता लगा सकते थे। चरक में भी इसके सिवा मूत्र ला-क। १ नपुप, खीरा । २ चिटिका । (नि.)३ परोक्षाको कोई विशेष विधि देखने में नहीं आती। पर मूत्रवर्द्धक, पेशाव बढ़ानेवाला। हां, पूर्वकालमें सुविज्ञ कविराज पात्रस्थित मूत्रमें एक मूत्रला (सं० स्त्री० ) मूत्रल टाप् । १ कर्कटी, ककड़ी। २ बूंद तेल डाल कर उसको गतिविधि देख रोगीका भावी वालुकी, एक प्रकारको ककड़ी। शुभाशुभ कह देते थे। मंत्र देखो। मूत्रबहनाड़ी (सं० स्त्री० ) मूलवहा नाड़ो। जिस नाड़ी। अभी वैसे वहुदशी और विक्ष वैद्य बहुत थोड़े हैं।