पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२०८

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मूत्रविज्ञान २०५ मूत्रविकृतिके कारण रोग और उसकी चिकित्सा! । वच गया है. वह अत्यन्त कष्टसे समय विताता है। 'डा० चेनोर ( Dr. Chexne)-के मतसे पेय द्रव्योंके कभी कभी लोग लजाके कारण पेशाव रोकनेको रसका तिहाई भाग मूत्ररूपमें निकल जाना आवश्यक है। वाध्य होते हैं, पर इससे मूत्रसञ्चय होनेके कारण मूत्रकोष किन्तु पसीना निकलनेके तारतम्यानुसार पेशावकी अत्यन्त वढ़ जाता है । उस समय इसको धारकता-शक्ति मात्रामें भी विलक्षणता देखी जाती है। इसके अतिरिक्त | शिथिल हो जाती है । इस कारण मलमूत्र त्यागके समय चवाने, चूसने लायक आदि अन्यान्य द्रव्य जो हम लोग | वेगको नहीं रोकना चाहिये । उससे स्वास्थ्यमें बड़ी हानि खाते हैं, वह भी पेय जलीय पदार्थका बहुत कुछ अंश पहुंचती है। लजाके कारण मूत्रधातरोगको उत्पत्ति प्रहण करनेको वाध्य है। अतएव यथार्थमें कितना जल | विशेषतः स्त्रियोंमें बहुत देखी जाती है। वृद्धावस्थामें पीनेसे उसका कितना परिमाण मूत्ररूपमें बाहर निकलेगा| अथवा उपदंशादि रोगके बाद मूत्रमार्गके शिथिल पड़ वा निकल सकता है इसका निर्णय करना विलकुल जानेसे मूत्रावरोधका व्याघात होता है। नीचे मूत्र और ...असम्भव है। पर हां, पेशाव अधिक हुआ वा रुक गया, ' तत्सम्बन्धोय पोड़ादिके कारण संक्षेपमें लिखे जाते हैं। यह पेशाव करनेवाला हो कह सकता है। . . मूत्रमें शुक्लांश ( Albumen ) विद्यमान रहने तथा मूत्र अधिक निकलने अथवा उसका हास होनेसे : दुर्वलताके कारण जव शोथ आदि लक्षण दिखाई देते हैं, जानना होगा, कि कोई न कोई रोग अवश्य हुआ है। तव उसे साण्डशुक्ल मूत्र ( Albuminuria ) रोग कहते जिससे पेशाव सरल और सहजसे हो, मनुष्यमात्रको हैं। मूत्रके साथ रक्त, अन्नरस (t hyle ). लसीका इस विषयमें लक्ष्य रखना एकान्त कर्त्तव्य है। जिससे : (Lymph ), पीप वा शुक्रका मिश्रण ; डिपथिरिया मूत्राघात उपस्थित हो, ऐसे विषयको यत्नपूर्वक छोड़ (त्वच्छादन ), हैजा, न्युमोनिया और सस्फोटक ज्वर ; देना चाहिये। लगातार आलस्यमय जीवन विताना, मूत्रयन्त अथवा गर्भके दवावके कारण वृक्क-धमनीमें अत्यन्त कोमल और गरम विछावन पर सोना, शुष्क रक्तकी अधिकता ; रक्तकी अपरिष्कृति (अर्थात् ब्राइटिस अथच उद्दोपक वस्तु खाना तथा उत्तेजक और अवरोधक | डिजिज और गर्भावस्थामें रक्त के मध्य अनेक अनिएकर गुणविशिष्ट मद्यादि पीना, ये सव मूत्रकृच्छ रोगीके लिये : पदार्थोंका संमिश्रण ) ; बहुत दिन तक सीसकघटित विशेष अहितकर हैं। जिनके मूत्रकृच्छ रोग हुआ है । औषध वा द्रष्यका व्यवहार ; शोताद ( Scurry ) मले- तथा उससे पथरी होनेकी सम्भावना है उनके लिये मूत्र- रिया ज्वर, रक्ताल्पता ( .Inaemia), वहुमूत्ररोग, उप- रोधक द्रव्यमान तथा जिससे मूत्रकृच्छ ता उत्पादन कर दंशरोगके कारण शरीरमें नाना परिवर्तन और रक्तको सकें, ऐसी वस्तु खाना निपिद्ध है। हीनता तथा अधिक परिमाणमें एलवुमेन (अण्डलाला). मूत्रको अधिक देर तक रोक न रखना चाहिये | युक्त द्रव्योंका खाना आदि कारणोंसे इस रोगकी उत्पत्ति नहीं तो वह शरीरके अभ्यन्तरस्थ जलोयांशमें पुनः हुआ करती है। सम्मिलित हो कर शरीरको क्लेदयुक्त बना देता है। इस | | इस रोगसे पीड़ित रोगी स्वभावतः शीर्ण हो जाता प्रकार वार वार मूत्रके सञ्चित और उसके प्रथम जली- है। मुखमण्डल क्रमशः पांशुवर्ण और स्फोत होता है। यांशके ऊद्ध वगत होनेसे मूत्रस्थलीमें मूत्रका अंश क्रमश:) मूत्रकी अल्पता और उसका आक्षेपिक गुरुत्व स्वाभा- गाढ़ा हो जाता है और उसीसे पथरी आदि रोगोंकी विकसे न्यून अर्थात् ११० हुआ करता है। परीक्षा द्वारा उत्पत्ति होती है। मूत्रस्थलीमें Stonc वा gravel] एलवुमेन · अण्डलाला ) पाया जाता है। कभी कभी सञ्चित होनेसे पेशाव करनेके समय बहुत कष्ट होता : समूचा शरीर सूज आता है। इस समय रोगीका शिर है। जो आलसी और अकर्मण्य है उनके कप्टकी सीमा कराने लगता और वह कमजोरी मालूम करता है। नहीं रहती। कितने रोगो इस रोगके शिकार बन गये हैं, गर्भावस्था मूत्रमें एलवुमेन रहना एक गुरुतर पीड़ा- उसकी शुमार नहीं। जिसका जीवन किसी तरह ! · का लक्षण समझा जाता था। किसी किसी गर्भिणीके Vol. XVIII. 62