पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१०

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२०७ मूवविज्ञान कालमें प्रसव करे, तो प्रायः मृत-सन्तान हो भूमि | पिनका तेल और सङ्कोचक औषधोका प्रयोग करना होती है। चाहिये। मूत्राशयमें जलन (Crstitis ) देनेसे मृदु सुस्थावस्थामैं मूत्रमें एलघुमोज वा पेप्टोन नहीं | कालिक वा जिङ्क (दस्ताधातु ) लोशन द्वारा पिच- मिलता, किन्तु दीर्घकालस्थायी अजीर्ण रोगमे तथा कारी तथा वहां पर उष्ण खेद और प्रलेप दे । रोगीके अस्थिमजोष ( Osteomyelitis), अभ्यन्तर पूय ( Ein खास्थ्यको रक्षाके लिये वलकारक आहार, जलवायु- prerna ), सपूय अन्नावरण प्रदाह ( Peritonitis), परिवर्तन, समुद्रजलमें स्नान, वलकारक औषध (Toni. क्षयकास (Phthisis), फुस्फुसप्रदाह ( Pneumonia), cs) काडलिभर आयलकी व्यवस्था करे। शीताद ( Scurvy) आदि ध्याधियों में मूत्रमें पेप्टोन अजीर्णताके कारण रक्तके मध्य अधिक चीके पाया जाता है। इस रोगका ऐसा कोई विशेष लक्षण, सञ्चय तथ मूत्रवाह प्रणाली (Ureters) के मध्यस्थित नहीं जिससे रोगके अस्तित्वका पता लग सके । मूल लसोका-नाडोक रूफोति-जन्य विदारणसे ही अन्नरसा- हिलानेसे उसमें बहुत फेन आता है और परीक्षा द्वारा श्रित मूत्र (Chylous Urine ) रोगकी उत्पत्ति स्वीकार एलवुमेन पाया जाता है। की जा सकती है। इस सम्बन्धमें डा० ल्युइस और कनि- मूत्रयन्त्र अथवा उसके वस्तिकोटर ( Pelvis ) में | हमका कहना है, कि Filaria sanguinis Hominis पोपका सञ्चार, मूत्राधार अथवा मूत्रमार्ग में प्रदाह, प्रदर नामक पराङ्गापुटकारी सूक्ष्म कीट मूत्रवाह प्रणालोको रोग (Leucorrhaea) और मूत्रमार्गके समोप स्फोटकके लसिका नालोके मध्य प्रवेश कर एकत्र लोष्ट्राकारमें विकाश आदि कारणोंसे मूत्रके साथ पीप निकलती है। अवस्थान करते हैं। उनके दवावसे उक्त नाली भिन्न इसे ( Pyuria ) या पोप मिश्रितमूत्ररोग कहते हैं। हो मूत्रसह लसिका और अन्नरसके निकलनेमें सहायता इसमें मूत गदला और दुर्गन्धयुक्त होता है । लाइकर । पहुंचाती है । डा. मानसन ( Dr. Afanson ) ने परीक्षा पोटाश मिलानेसे रज्जुवत् पोप और उत्ताप होनेसे एल. द्वारा उस कीटजातिके Diurna, Nocturna और Pers वुमेन पाया जाता है। अणुवीक्षण द्वारा पीपका कण tans नामक तीन प्रकारके भेद निर्देश किये हैं अर्थात् दिखाई देता है । पीपके तारतम्यानुसार रोगके लक्षण-, वे सव कीड़े दिन रात रक्तमें रहते हैं। फिर ये तीनों में भी कमी वेशो देखी जाती है। कीट भी भिन्न भिन्न आकारके होते हैं। मादा १४ मूत्रयन्त्रके वस्तिकोटर ( Pelvis से पोप निकलने | इञ्च लम्बी और बालकी तरह पतली तथा नर उससे पर भी मूत्र पीपमिश्रित और अम्लाक्त तथा श्लैष्मिक | कुछ छोटा होता है। उनको डिम्य १ से १ झिल्लीके त्वक्में परिपूर्ण रहता है। इस समय कमरमें | १६०० ६०० हमेशा दर्द मालूम होता है। सूत्राधारसे पीप निकलने लम्वा होता है। वे सब डिम्ब अण्डाकारसे क्रमशः .से मूत्रत्यागके बाद रज्जुवत् पोप तथा मूत्रमार्गमें लम्बे होते हैं। यह अवस्था उनको भ्रण ( Embryo) पोप रहनेसे मूत्रत्यागके पहले ही पीप निकल पड़ती है। कहलाती है। प्रदरजनित मूलमें पीप रहनेसे कैथिकर नामक नलयन्त्र ___ उक्त विभिन्न श्रेणीके कीटोंके अवस्थानानुसार मूत्र- द्वारा मूत निकलनेके समय उसमें पोप नहीं दिखाई । | मे भी दिनमानादिक्रमसे अन्नरस (Chyle) देखा जाता देती। अधिक दिन यह पीड़ा स्थायो होनेसे मूत्रयन्त्र है। प्रोष्मप्रधान देशोंमें ही प्रधानतः इस रोगका प्रादु- आक्रान्त हो सकता है। र्भाव हुआ करता है। वाल वृद्ध युवा तथा विशेषतः रोगका मूल कारण वतला कर पहले चिकित्सा) स्त्रीजाति हो इस रोगले आक्रान्त होती है। द्वारा उसोको यन्त्रणा दूर करना उचित है। पोछे पीप इस व्याधिसे आक्रान्त होनेसे पहले किसी प्रकार की उत्पत्ति रोकनेके लिये फिटकरी, गालिक एसिड का भी लक्षण दिखाई नहीं देता। छात् यह पाधि डिकक्सन, युभायसी वा वकु, वैलसम, कोपेवा, तार- आक्रमण कर देती है। उस समय मूल लोहिताभ श्वेत-