पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२११

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२०८ मूत्रविज्ञान वर्णका हो जाता है। कभी कभी फेनयुक्त तथा वरतना मूत्रमार्ग में प्रदाह ; ५ धूम्ररोग ( Purpura ), शीताद में रखनेसे ऊपरी भागमें दूधकी छालीके जैसा पदार्थ | (Scurvy ), वसन्त और हैजा आदि विषज रोगोंसे दिखाई देता है। रासायनिक परीक्षा द्वारा उसमें साण्ड रक्तका तारल्य और परिवर्तन, ६ दारुण मनस्ताप और • शुक्ल, रक्ततान्त्र (Fibrin ) और चर्बी पाई गई है। इथर ७ प्रीष्मप्रधानदेशमें मूलयन्त्रमें पराङ्गपौष्टिक कीटका मिलानेसे उसका कुछ अंश गल जाता है। अणुवीक्षण संस्थान ही प्रधान कारण है। कभी कभी प्रातिनिधिक की सहायतासे उसके मध्य तैलविन्दु, शस्यवत्कोष, परा- उपसर्गका भी कारण दिखाई देता है। प्रोमप्रधान पुष्टप्राणी और लोहितवर्ण रक्तकणिका दृष्टिगोचर होती | मोरिसस द्वीपमें इस संक्रामक रोगका प्रादुर्भाव हुआ है। उत्ताप देनेसे मूत्र शिथिलभावमें संयत होता और | उससे दूधसी गंध निकलती है । रोगीके स्वास्थ्यके | ___इस रोगमैं मूत्र लाल दिखाई देता है। हमेणा वा सम्बन्ध में कोई विशेष व्यतिक्रम नहीं देखा जाता, केवल | कभी कभी मूत्रके साथ रक्त गिरता है। अङ्गचालना, उसकी देह शीण और दुर्बल हो जाती है। वह कमरमें | अश्वारोहण वा द्रव्यविशेषके खानेसे यह रोग बढ़ता है। उदरके नीचे और मूत्रमार्गमे वेदनाका अनुभव करता मूत्रयन्त्रसे रक्त निकलने पर मूत्र धूम्रवर्णका दिखाई देता है। कभी कभी संपत काइल द्वारा भी मूत्रवरोध होता है। है। मूत्रयन्त्रके वस्तिगह्वर और मूत्रवाहप्रणालोसे निक मूत्रमें पोप वा फोस्फेट रहने पर भी इस रोगके साथ | लते समय लंबा और कीटाकृति संयत रक्त तथा मूत्रा भ्रम हो सकता है। उस समय रासायनिक प्रक्रिया द्वारा धारसे रक्तस्राव होने पर पेशाब करनेके बाद रक्त गिरता प्रकृत रोगका पता लगाये विना काम नहीं चलता।। है। मूत्रमार्ग ( Urethra ) से निकलने पर पहले ही वहुकालव्यापी यह रोग बिलकुल आरोग्य हो जाने पर रक्त निकलता है। अणुवोक्षण द्वारा रक्तकणिका तथा भी फिरसे अथवा वीच बीच में हो सकता है। कभी कभी रासायनिक द्वारा शुक्लांश पाया जाता है। इस समय अकस्मात् रोगीको मृत्यु भी हो जाती है। उस स्थानमें वेदना होती तथा रक्तस्रायके सभी लक्षण कभी कभी रोग विना चिकित्साके भी आरोग्य हो दिखाई देते हैं। कभी कभी सैनिक तथा गुल्मवायु जाता है। औषधोंमें पोटाश आइओडाइड, पाइक्रो (हिष्टिरिया) रोगाकान्त स्त्रियां बड़े कौशलसे मूत्रके नाइटेट आव पोटाशियम, टि-प्टिल और मानप्रोभ वृक्षकी साथ रक्त मिला देती हैं। ऐसी हालतमें रक्तस्रावके छालका व्यवहार कर सकते हैं। लवणाक्त जलमें स्नान | लक्षण रोगनिर्णयके सहकारी होते हैं। यह रोग अकसर और वलकारक पथ्यसे भो बहुत उपकार होता है। थोड़ा आरोग्य हो जाता है। मांसका जूस भी दिया जा सकता है। शरीरमें फिलेरिया एसिड गालिक, सुगर आव लेड, पाइरो गालिक कीटको न घुसने देनेके लिये गरम जलको ठंडा करके । एसिड, एसिड सलफ्युरिक डिलके साथ टिं ओपियाई, पीना और खाद्य द्रष्यादिको जलसे पाक करना चाहिये। हमामेलिस आदि औषध सेवनीय है। वहिदशमें आर्ग- सरक्त-मूत्र रोग निम्नोक्त कारणसे उत्पन्न हुआ टिन इजेक्सन करनेसे बहुत लाभ पहुंचता है। मूत्रा. करता है। १ आघात, २ तारपिनका तेल वा कन्था धारमें होनेसे शीतल जलको पिचकारी तथा मूत्रमार्गमें रिस नामक स्पेन देशीय माक्षिक औषध ( Canthari होनेसे एक साउण्ड वा कैथिटर यन्त्रको कुछ देर तक . लगा कर रखनेसे बहुत उपकार होता है। •dis ) का सेवन अथवा मूत्रपथरी, कर्कटरोग, एम्बलि- जम, साण्डशुक्लमूत्र ( Acute Bright's disease ) से ___उपरोक्त लोहित सभी रक्त कणिकाएं जव गल कर मूत्रयन्त्रका रक्ताधिक्य वा प्रदाह ; ३ मूत्राधारका रका मूत्र के साथ बाहर निकलती हैं, तव उसे हिमाटिन्युरिया धिक्य वा प्रदाह अथवा उसमें अर्बुद ( Polypus), ( Haematinuria) वा Haemoglobinuria कहते • शिराप्रसारण ( Varicose veins) अथवा कर्कटरोग ; हैं। इसमें स्नायुमण्डलको क्रियाके व्यतिक्रम होने के .४ प्रमेह ( Gonorrhaea ) वा किसी दूसरे कारणसे ! कारण मूत्रयन्त्रस्थ रक्तनालियाँ स्फीत हो उनके मध्य-