पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१२

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२०६ मूत्रविज्ञान वत्ती रक्तस्रोतके मध्य पहले ही रक्तकणिकाये द्रव हो । चिकित्सकोंके मतसे मूत्रका यवक्षार-जान-विशिष्ट उपा- जाती तथा वही मूत्रमें मिल कर बाहर निकलती हैं। दान ( Urea ) अपस्रावित न हो कर कार्वनेट आव मलेरिया और दूपित ज्वर ( Septic fever ) मूत्र- एमोनियामें परिवर्तित होनेसे उक्त पीड़ा उत्पन्न होती यन्त्रके ऊपर शोतल वायुसञ्चालन, धूम्ररोग और शीताद है। किन्तु आज फलके चिकित्सक उसे स्वीकार नहीं पोडासमूह, उद्जन वाप माघ्राण आदि कारणोंसे रक्त करते। वे कहते हैं, कि युरिया और युरिक एसिड आदि कणिकाएं गल कर मूत्रमें मिल जाती हैं। पर्यायक्रम अनिष्टकर पदार्थ मूत्रके द्वारा नहीं निकलनेसे रक्तस्रोत- से इस पीड़ाके उपस्थित होने पर उसे पारक्सिजमल में उनके जम जानेके कारण शोणित विषाक्त और सरल हिमोग्लोविनिउरिया कहते हैं। यह प्रायः युवकोंको ही हो कर इस रोगको उत्पन्न करता है । डा० द्रावि हुआ करता है। (Dr. Traube)-का कहना है, कि तरल शोणितके ऊपर __ इसमें मूत्र गदला, काला अथवा पोर्ट नामक शराव- किसी प्रकारका दयाव पड़नेसे मस्तिष्कमें इडिमा उत्पन्न के जैसा दिखाई देता है। इसमें नीचे जो अंश बैठ | होती है तथा उससे युरिमियाके लक्षण दिखाई देते हैं। जाते हैं अणुवीक्षण द्वारा परीक्षा करनेसे वे कंकरके हैजा और ब्राइटस पीडाका उपसर्ग, ये दोनों रोग युरिटर जैसे मालूम होते हैं। रासायनिक परीक्षा द्वारा अधिक को अवरुद्धता तथा मूत्रावरोधके कारण उत्पन्न होते हैं। पलवुमेन पाया जाता है। स्पेक्ट्रोस्कोप ( Spectros- | इस समय रोगीके मस्तकके पश्चाद्भागमें वेदना होती है cope ) द्वारा मूत्रके मध्य अई पक्क कमला नीबूके रंगकी । और सामनेका भाग भारी मालूम होता है। शिर चक- तरह दो रेखा देखी जाती हैं। पर्यायक्रमसे हिमोग्लो राना, निद्रादेश, श्रवण और दर्शनशक्तिका हास, विनिउरिया आरम्भ होनेके पहले दुर्बलता, शीत, | वमन, उदरामय, हस्तपदादिका स्पन्दन, कभी कभी मृगी कम्प, करिदेशमें वेदना, दोनों पैरमें यन्त्रणा और वा संन्यासरोगकी तरह आक्षेप, नाड़ीको दुर्वलता, उत्ताप दृढ़ता, उदरमें शूलवत् वेदना, निद्रावेश, जृम्भन, , की न्यूनता, श्वासकृच्छ, श्वास और पसीनेमें मूत्र सी पिपासा, शिरोवेदना, मुखश्री म्लान वा धूम्रवर्ण, कभी दुर्गन्ध, प्रलाप, अचैतन्य आदि लक्षण उपस्थित होते हैं। कभी वमन, विवमिपा और अण्डकोपके संकोचन आदि पोड़ाके शुरू में शिरमें दर्द और वमन होता है। कभी कभी लक्षण दिखाई देते हैं। पोछे कृष्णवर्ण मूत्रत्याग होने | आक्षेपादि होते भी देखा जाता है। आक्षेप उपस्थित लगता है। ज्वर नहीं रहता, शरीरमें ताप भी स्वाभा-| होने पर मुखमण्डल उदास मालूम होता और कनीनिका विकसे कम रहता है। विरामकालमें मूत्र स्वाभाविक | प्रसारित होती है। युरिटरको अवरुद्धताके कारण रोगमें तथा रोगी सुस्थता मालूम करता है। शरीरको चमड़ो निम्नोक्त कई लक्षण दिखाई देते हैं, जैसे-मूलकी अल्पता पीली हो जाती है। और देखने में जलके समान तरल, अङ्गप्रत्यङ्गस्पन्दन, इस रोगमें कुनाइन और टिप्टिल विशेर लाभदायक | अनिद्रा, श्वासप्रश्वास मृदु और कष्टकर, अत्यन्त पिपासा, है। दूसरी दूसरी ओषधोंमें आर्सेनिक गालिक एसिड, | जिहा और मुखाभ्यन्तर शुष्क, निद्रावेश और अस्थिरता। पासटेट आव लेड, डिजिटेलिस, आर्गट और पोटाश ऐसे रोगीको से १२ दिनके भीतर मृत्य होती है। इस आइयोटाइड सेवनीय है। रोगी हमेशा गरम वस्त्र पहने रोगमें अचैतन्यका आक्षेप नहीं रहता। रहे नहीं तो, ठंढ लगने पर रोग बढ़ जानेको सम्भा संन्यास वा मृगी रोग अथवा अफोम और वेलडोना वना है। कभी कभी विना चिकित्साके यह रोग आरोग्य | सेवनके कारण विषमय भाव ( poisoning ) के साथ होते देखा गया है। इस पीडाका भ्रम हो सकता है। इस कारण चिकित्सक मूत्रनिस्राव नहीं होनेसे अचैतन्य, आक्षेप आदि | को उचित है, कि वे अच्छी तरह रोगको पहचान कर लक्षण यदि दिखाई दे, तो जानना चाहिये, कि मूत्रक्षय- उसकी चिकित्सा करें। इसकी चिकित्साप्रणाली इस विकार ( Uraemia ) रोग उत्पन्न हुआ है । प्राचीन | प्रकार है- . Vil, xvill_53