पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१३

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मूत्रविज्ञान कमरमें गरम जलका स्वेद, पुलटिश वा डाय कापि (Diabetes AIellitus ) और २ तृष्णातिशययुक्त बहु- तथा त्वक्की क्रियावृद्धिके कारण कभी कभी वाष्प मूत्र ( Diabetes Insipidus ) । ये दोनों रोग बहुमूत्रके अथवा गरम जलमें स्नान कराना उचित है। उदरामय | अन्तभुक्त होने पर भी उनको प्रकृति एक-सो नहीं है। रहनेसे पहले उसीको शान्त करनेकी चेष्टा करे, पर एक- मधुमेह नामक बहुमूत्ररोगमें मूत्रके साथ शर्करा निकलती पारगी मलरोध न करे । क्योंकि, मल द्वारा अनेक | है और दूसरे में शर्करा विलकुल नहीं रहती। विषाक्त पदार्थ बाहर निकल जाते हैं जिससे रोग अधिक परिमाणमें और वार वार मूत्रत्याग होने आरोग्य होनेकी सम्भावना है। दस्त बंद करनेसे वे सब तथा उस मूलके परीक्षाकालमें शर्कराका निकलना दिखाई विषाक्त पदार्थ निकल नहीं सकते और इससे रोग देनेसे वहुमून पीड़ा जाननी चाहिये। एलोपैथिक के 'भारोग्य होनेमें वाधा पहुंचती है। रोगी यदि अचैतन्य | मतसे यह रोग ग्लाइकोसुरिया ( Glycosuria ) नामसे हो जाय, तो गलेमें ब्लिष्टर देना उचित है। मृगी रोग भी परिचित है। की तरह आक्षेप होनेसे क्लोरोफार्मका सुघना, क्लोराइस डा० वोनार्डका कहना है, कि खाये हुए व्यकी हाइडास, नाइट्रेट आव एमाईल, नाइट्रोग्लिसरिन, एमो- शर्करा और वस्तुसार ( Starch ) बहुत कुछ यकृतको निया, इथर, ओजोनिक इथर, वेञ्जयेट आव सोडा आदि क्रिया द्वारा ग्लाइकोजन अर्थात् द्राक्षा शर्करामें रूपान्त- “प्रयोज्य है। जिस पीड़ामें उपसर्ग स्वरूप यह व्याधि रित होतो है। यकृत प्रणाली ( Hepatic Duct) और होती है उसकी अच्छी तरह चिकित्सा करना उचित अधः अवरोहिणी शिरा ( inferior vena cava) के है। कालेरा रोगमें प्रधानतः उपसर्गरूपमें युरिमिया | - शोणितमें स्वभावतः ही सहस्रांशके १ से ३ भाग तक देखी जाती है। उस समय जब तक पेशव नहीं उतरे, दाक्षा-शर्करा रहती है। सुस्थ शरीरमें फेफड़े के मध्य तव तक मूत्राधार (Kidneys)-के ऊपर लिटर | वह दग्ध हो जाती है। इसी कारण धमनोके रकमें आदि दे कर दूपित शोणितको शोषण तथा मूत्रकोष हो शर्करा नहीं पाई जाती। यदि आहार द्वारा शरीरमें कर तरल मिश्रमूत्रको निकालनेकी कोशिश करनी चाहिये , अधिक शर्करा प्रवेश करे, अथवा यकृतको क्रियाके व्यत्यय इस समय रोगीके श्वासकृच्छ और पिपासाकी वृद्धि होती के कारण अतिरिक्त द्राक्षाशर्करा सम्पूर्ण रूपसे दग्ध न हो है। साथ साथ दृष्टिशक्तिका हास और शिर चक- जाय, तो शर्करा रकमें मिल कर मूनके साथ बाहर राने लगता है। इस समय रोगोको अवस्था बड़ी शोच. निकलती है। नोय हो जाती है, जोनेकी कोई आशा नहीं रहती। वालक डा० पेभीका मत विलकुल स्वतन्त्र है। वे कहते हैं, • वालिका, वा वयोवृद्धके पांच वा छ: बार भेद वा कोलेरा- कि यकृत शर्करा उत्पन्न नहीं होती। स्वभावतः मूत्र में के आकारमें दस्त आनेसे घरके लोग युरिमियाको जो सामान्य शर्करा रहती है, साधारण परीक्षा द्वारा आशङ्कासे पूछा करते हैं कि दस्तके साथ पेशाव आया | वह दिखाई नहीं देती । इस रोगमें अन्नादि रक्त नालियां है या नहीं। भेदके बाद दुर्बल शरीर में यदि मूत्राघात शिथिल हो जाती हैं और उस कारण यकृत्को धमनीमें • उपस्थित हो, तो मूत्रवाहिका नालीके संकुचित पथमध्य | नियमित रूपसे रक्त परिवर्तित नहीं हो सकता। यकृत् हो कर मूत्र प्रवहणको विशेष असुविधा होती है तथा दो शिराके रक्तस्रोतमें अतिरिक्त आक्सिजन-मिश्रित रक्त वा तीन दिन इस प्रकार मूत्रके रुक जानेसे युरिमिया प्रवाहित रहनेसे उसके मध्यका टायुक्त पदार्थ समूह शकरामें परिणत हो कर साधारण रक्त स्रोतसे गमन • विष शरीर और रक्तमें सञ्चालित हो देहवल्ली में एक विष- | | करता है और उसके बाद क्रमशः मूत्रके साथ बाहर धारा ढाल देता है। उस विषकी ज्वालासे जर्जरित हो निकल पड़ता है अधिक टार्चयुक्त द्रव्य भक्षण, क्लोरो- मनुष्य रोगको निदारुण यन्त्रणा भाग करते करते जीवन | फार्म आघ्राण, कुचिला ( Strychnine) द्वारा शरीर विसर्जन करता है। बहुमूत्ररोग प्रधानतः दो प्रकारका है-१ मधुमेह विपाक्त होना, श्वासकास और हुपिंकफ आदि फेफड़े को