पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१५

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मूत्रविज्ञान पाइंट तक होते देखा गया है। मूत्र जलवत् परिष्कार । प्रकोप होता है, किन्तु पीछे उतना नहीं रहता। और स्वच्छ होता है। उसका आपेक्षिक गुरुत्व कमसे अधिकांश रोगी से ३ वर्षके भीतर कराल काल- कम १.१५ और ज्यादेसे ज्यादा १.६० है, किन्तु साधा- के शिकार बन जाते हैं। शेषावस्थामें मूत्रका 'रणतः १:३० से १.४० तक हुआ करता है । उत्तप्त | परिमाण और शराका भाग थोड़ा हो जाता है, किन्तु स्थानमें रखनेसे मूत्र फेन आता है। शक राकी अधिः । मूलमें एलबुमेन रहता है । खानेमें अरुचि, अनिवार्य कताके कारण कपड़े में दाग पड़ जाते हैं। मूत्र पर वमन, उदरामय और अन्यान्य लक्षण दिखाई देते हैं। चिउँटो वा मक खो बैठ कर मोठा रस चूसती है। । आखिर दुलताके कारण अथवा किसी दूसरे उपसर्गसे युरिया और युरिक एसिडका भाग वढ़ता है । मूत्रमें | रोगीको मृत्यु होती है। सैकड़े पीछे से १२ भाग शर्करा रहती है। २४ घंटेमें यह पीड़ा कठिन होने पर भी रोगो कभी कभी १५ से २५ औंस शर्करा निकलती है। खानेके वाद, आरोग्य हो जाता है। नियमानुसार भोजन, परिधान विशेषतः मिष्ठान्न और टाचंयुक्त वस्तु खानेके वाद मूत्र- और व्यायाम करनेसे रोगी बहुत दिन तक जीवित रह में शर्कराका भाग अधिक देखा जाता है। रोगो ज्वरा- सकता है। युवकोंकी पीड़ा ही कुछ गुरुतर होती है। कान्त होनेसे शकरा कम हो जाती है अथवा कभी कभी । बुढ़ापेका रोग उतना प्रवल नहीं होता । रोगीके अचैतन्य ' तो विलकुल रहती ही नहीं। मांस खानेके बाद भी हो जानेसे कभी कभी संन्यासरोगके साथ इसका भ्रम शर्कराका ह्रास होता है। कभी कभी मूत्रमें एलवुमेन होता है, किन्तु प्रश्वासित वायुको गंध और मूत्रको और काइल रहता है। परीक्षा करनेसे सहज हीमें रोग निर्णय किया जा सकता • शरीरकी दुर्गलताके कारण भूख नहीं लगती जिससे है। पाकयन्त्रमें विकार उत्पन्न होता है। इस समय उदरका आहारकी सतकर्ता हो इस पोड़ाकी मुख्य चिकित्सा अपरी भाग भारी मालूम पड़ता है, खट्टी डकार आती, है। चीनी, मधु, आलू, मीठाफल, अन्न, सागूदाना, मल कड़ा और फेनयुक्त निकलता तथा हमेशा कोए- मटर और अन्यान्य धार्चघटित द्रव्य खाना निपिद्ध है। वद्धता मालूम होती है । पीडाको अन्तिम अवस्थामें मांस, मछली, डिस्व, भूषिर विस्कुट, मैदेकी रोटी कुछ आमाशय चा उदरामय हो सकता है। रालमें शर्करा जली रोटी, मक्खन, मथा हुभा दूध, दूधकी छाली, खीरा पाई जाती है और उस शर्कराके लाकटिक एसिड बदलने और सागसब्जी खाना विशेष फलदायक है। विना से राल खट्टी हो जाती है। रोगोको प्यास बहुत लगती | चीनोके चाय और कहबेका व्यवहार किया जा सकता है। है, जीभ सूख जाती, लाल दिखाई देती, कभी कभी सरस वीनीके बदले में सांकेरिनको काममें ला सकते हैं। दूधमें अंकुरयुक्त हो जाती है । पहले प्रश्वास वायुमें मूल इसलिये मना किया गया है, कि उसमें शक्करका भी नामक मदिराकी तरह मीठो गन्ध तथा रोग कठिन होने भाग है। किन्तु थोड़ा व्यवहार क.मेसे कोई नुकसान से सिर्का ( Vinegar ) अथवा सड़ी पची वीयर शराब- नहीं । पशुविशेषका यकृत् वा शुक्ति अनुपकारी की सी गंध निकलती है । मसूढ़ा कोमल और रक्तस्त्राव है। डॉ० डनकिनका कहना है, कि बहुमूत्र- युक्त होता है। प्रस्त रोगीको प्रति दिन से ८ पाइ' मथा हुआ दूध बहुमूत्ररोग दीर्वकाल स्थायी होनेसे क्रमशः यक्ष्मा, | (महा निकाला हुआ दूध वा दूधका जल-भाग ) अथवा स्फोटक, दग्धद्रण (Carbuncle), विदग्ध दृष्टि ( Soft | तरल मट्ठा पिलानेसे शक्करका हास हो सकता है भनेक cataract) और विचर्चिका ( psoriasis ) आदि उप- समय वह भी विशेष फलप्रद नहीं होता । मद्यमें फ्रेण्डी, सर्ग उपस्थित होते हैं। प्रधानतः इस पीडाको गति | हिस्की और तिक्तएल मद्यका थोड़ा सेवन करा सकते उतनी प्रवल नहीं है, किन्तु कभी कभो इसके लक्षण है, परन्तु पोर्ट और शेरी आदि दाखसे बनाया हुमा मद्य प्रवल होते देखे जाते है । रोगको प्रथमावस्था में लक्षणोंकार विलकुल निषिद्ध है। बीच वीचमें रोगीको रुचि बदलने के