पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२१७

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२१५ मूत्रविज्ञान • होता है, पर रासायनिक परीक्षा और आपेक्षिक गुरुत्व । मूत्र थोड़ा, तामड़े रंगका और गाढ़ा होता है। उस. की स्वच्छता देखनेसे सहजमें इस रोगका पता लगाया में एलबुमेन, एपिथेलियम, फाइब्रिन-काप्ट और कभी जा सकता है । इसकी गति हमेशा मंद रहती है, किसी कभी रक्त रहता है। अधिक परिमाणमें युरेटस नीचे किसी रोगमे तेज भी दिखाई देतो है । यह दुश्चिकित्स्य | वैठ जाता है। रोगो कमरमें दर्द और भारी मालूम यान्त्रिक पोड़ा, दुर्बलता, उदरामय और शोर्णता आदि | करता है। कभी कभी मूत्र जलके जैसा तथा आक्षेपिक विभिन्न कारणोंसे वा पसर्ग उपस्थित होनेसे रोगीकी गुरुत्वमें न्यून दिखाई देता है। एम्वाईके वढ़ जानेसे मृत्यु हो जाती है। कमरमें वहुत दर्द होता है तथा पलविमिन्युरिया वा अफीम, भेलेरियन, लौघटित औषध, आर्गट, पोटाश- हिमश्च रियाका प्रकोप देखा जाता है। कमरमें आई आइयो डाइड, आर्सेनिक, वेलडोना, पोटाश ब्रोमाइड, वा शुष्क कापि, कोमेण्टेशन अथवा पुलटिश देना उचित एसिड नाइट्रिक डिल, एण्टिपाइरिन और पिलोकार्पिन | है। विरेचक औषध और उष्ण स्नान बहुत लाभदायक इन्जेक्सन आदि इस रोगमें व्यवस्थेय है। मेरुदण्ड, | माना गया है। कभी कभी स्निन्धकारक पानीयका भो प्रोवाका पश्चाद्भाग चा उपपशु काप्रदेशमें ( Hypocho. ध्यवहार किया जाता है। ndriac region ) अविरत वैद्युतिक स्रोत संलग्न करे। पूयज वृक्तकोष ( Suppurative Nephritis ) रोग- बलकारक पथ्य इस रोग में विशेष लाभजनक है। जल-1 में मनयन्त बडा और आरक्तिम तथा छोटा वा बड़ा पान विलकुल बन्द कर देनेसे अनिष्टकी सम्भावना है। स्फोटकयुक्त होता है। कटिदेश, मन्त्र और अन्नाव- - वृक्कक वा मूत्रयन्तका रक्ताधिक्य ( Renal Con- रक झिल्ली ( Peritoneum ) अथवा वक्षकोटरमें भी gestion) प्रधानतः प्रवल और अप्रवलके भेदसे दो स्फोटकका निकलना देखा जाता है। आघात, मूला- प्रकारका है। प्रबल रक्ताधिक्य रोगको कभी कभी वृक्क | मरीकी उत्तेजना, मूत्राधार और मूत्रमार्गके ऊपर और कौष ( Catarrhal Nephritis ) कहते हैं । सस्फो . निकटवत्ती स्थानमें अधिक प्रदाह तथा पाइमिया टक ज्वर, शीतलवायु सेवन, कन्थराइडिस, तारपिनका | (Pyaemia) और एम्वलिजम आदि हो रोगोत्पत्तिका तेल, कोपेवा आदि औषध सेवन, बहुमूत्रके कारण मूत्र- कारण होता है। की उत्तेजना, मूत्रयन्त्रमें एम्वलाई वा कर्कटरोग, प्रदाहकी ___पहले कमरकं एक पार्श्वमें दर्द मालूम होता है, अङ्गा- प्रथमावस्था और हिटिरिया रोगजन्य रक्तनालियोंका चालनाके द्वारा धीरे धीरे वह बढ़ता जाता है तथा मूत्रा- प्रवल प्रसारण ही रक्ताधिक्यके प्रवल तथा हृपिण्ड वा धार, अण्डकोष और ऊरुदेश तक वह फैल जाता है। फुसफुसकी किसी पुरानो पीड़ाके कारण शिरा सञ्चा- भत्यात शीत और कम्प, वमन, मूत्रका लौहित्य और लनका व्याघात, वृक्तकधमनी ( Renal Vein) और गाढ़ता, उसमें रक्तमिश्रण, अत्यन्त ज्वर, मूत्रक्षयविकार 'अधाअवरोहिणी शिरा ( Inferior veua cava) के | ( Uraemia ) आदि लक्षण दिखाई देते हैं। स्फेटिक सङ्गमके ऊपरी भागमें विवर्द्धित गर्भाशय अथवा उदर होनेसे उतना दर्द नहीं होता । वस्तिगह्वर स्फोटक होने रोगके सिरम ( Serum) द्वारा चाप पड़नेसे वृक्कों से पेशावमें पीप आती है। रक्त सञ्चित हो अप्रवल रक्ताधिक्य रोगको उत्पत्ति एम्पिरेटाके द्वारा पीप निकालना, वलकारक औषध होती है। और पुष्टिकर पथ्यका सेवन करना इस रोगमें विशेष ___ इसमें मूत्राशय विवद्धित और आरक्तिम तथा माल- .. फिगियेन बोडीके निकट आरक्तिमता और छोटा छोटा वक्तवस्त्यौष ( Pyeritis वा Pro-Nephrosis) लाल दाग दिखाई देता है। सभी मूत्रनालियोंकी रोगकी उत्पत्तिके कारण ये सब हैं,मूलाश्मरी, कर्कट श्लैष्मिक मिल्ली में सामान्य प्रदाह रहता है। अप्रवल और गोटी ( tubercle ) रोग, निकटवत्ती स्थानमें रक्ताधिक्यमें मूत्रयन्त्र क्रमशः संकुचित और दृढ़ होता और गोटी ( tubercle) राग, । है। कभी कभी एम्बलाई भी देखी जाती है।...प्रदाह, शैत्यसंलग्न, तारपिन वा कन्थराइडिस (माक्षिक- लाभजनक है।