पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२२०

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- २१७ मूत्रविज्ञान नहीं चाहिये। वार वार शुष्क कापि देनेसे भी उप- लता भोगसे सहसा भूवायुका उत्ताप-परिवर्तन; अमिता कार होता है। प्रथमावस्थामे लघु पथ्य हीका सेवन | चार और अतिरिक्त उन सुरापान , शारीर प्रकृतिका करना चाहिये। नाइद्रोजिनस् खाद्य निषिद्ध है। दूध व्यतिक्रम अथवा रक्तदूषण, गेठिया वात, उपदंश, ट्यु- जहां तक पचा सके, दे सकते हैं। उष्ण वाष्पमें भावना | वार्किलस और स्क्रु फ्युलस पीड़ामें अथवा सीसक द्वारा या स्नान (Vapour bath ), पलानेल वस्त्र परिधान | शरीरका विषाक्त होना, वृक्कका वस्तिकोटर अथवा मूत्रा- आदि उपायसे गात्रचर्मको क्रियावृद्धि करना चिकित्सक धार वा मूत्रमार्गमें जलन देना ; गर्भावस्था और दीध- का प्रधान कत्तव्य है। पूर्णमानामें नाइट्रेट और एसि कालव्यापी अजीर्णता आदि रोग शरीरमें जड़ पकड़ टेट आव पोटाश तथा लाइकर-एमन-एसिटेटको काफी कर हो दीर्घकालस्थायी वाइटाण्य व्याधि (Chronic जलके साथ कुछ वुद टि हेनवेन मिला कर व्यवहार | Bright's disease ) उत्पन्न करता है। करनेसे बहुत लाभ पहुंचता है । कोई कोई मूत्रयन्त्रके ट्युवोंका प्रदाह स्थायी होनेसे उसमें चिकित्सक भाइनम एण्टिमनिका प्रयोग करते हैं । अभ्य-1 एपिथेलियल कोष बढ़ जाता है। पीछे वही रेणुवत् न्तरमें जेवरण्डो और त्वकके मध्य पिलोकारपीन इलेक पदार्थमें परिणत हो कर मूत्यन्त्रको बड़ा बना देता है। किया जा सकता है। उत्तेजक औषध मालका ही व्यव | उस समय कोपमें अधिक चवीं जमो हुई देखी गई है।

  • हार निषिद्ध है।

इस प्राचीन ट्युवल निफ्राइटिस रोगमें मूत्रको खल्पता, ___अप्रवल अवस्थामें, विशेषत. शोथ उत्पन्न होने पर वर्णका गदलापन और आपेक्षिक गुरुत्व प्रायः स्वाभा- पोटाश दार्टएसिडा, टिं डिजिटेलिस, टिं स्कुइट, साइट्रस | विक रहता है। शिर चकराना, शिरमें दर्द, क्षीण श्वास- आव काफिन और इन्फ्युजन आव ब्रुमटपस आदिका प्रश्वास, अजीर्णता, क्षधामान्य, सर्वदा मूत्रत्याग, मुख- व्यवहार किया जाता है। दस्त लानेके लिये इलेद्रियम मण्डल स्फीत और मैटेके रंगके जैसा, गात्रत्वक् शुष्क, और पाल्म जुलावका प्रयोग किया जा सकता है। कटि- उदर स्फोत, वमन, दृष्टिका व्यतिक्रम, मूत्रयन्ताधारमें देशमे शुष्क कापि, सिनापिजम, फोमेण्ट सन, पुल्टिस वेदना और हाथ पैरमें शोथ आदि लक्षण दिखाई देते और क्लोरोफार्म-लिनिमेण्टकी मालिश करनेसे वहुत उपकार है। आनुङ्गिक पीड़ाके मध्य हुपिण्डऔर फुसफुसमें होता है। टाएटाइन ट्रप और लाइकरलिटो देना नाना प्रकारकी व्याधि तथा समय समय पर संन्यास उचित नहीं तथा अफीमका सेवन भी निषिद्ध है। (Apoplexy) रोग आक्रमण कर देता है। अप्रवल ब्राइ- प्रबल अवस्थाका कुछ हास होनेसे कुनाइन टि-प्टिल टास्य रोगमें भी वामकोष ( lett ventricle) की वृद्धि फेरो पट-एमन-साइदास और सिरपफेरो फोस्फेटिस को और हपिण्ड में बहुत परिवर्तन होता है। इत्यादि सेवनीय हैं। निद्राके लिये क्लोरल हाइडास । उपरोक्त लक्षणके बाद यह रोग चार विभिन्न अव- और हौसिन विशेष उपकारी है। अनेक समय फच- स्थामें परिणत होता है । जैसे-१ श्वल्कपातज वृक्तकोष साइन, टैनिन, वेञ्जयेट आव सोडा और नाइट्रोग्लिसि (Chronic Desquamative Nephritis) वा सफेद और रिनके प्रयोगसे भो फल देखा गया है। किन्तु उनकी | चिकना वकक (Large. white or चिकना वृक्तक (Large, white or smooth kidney), उपकारिताके ऊपर निर्भर करके बैठ रहना उचित नहीं।। २ संकुचित वृक्कक ( Girrhotic kidney ) यह प्रेन्यु- क्रमशः वलकारक पथ्य तथा अल्प मात्रा पोर्ट और लर किउनी वा क्रोनिक इण्टोष्टिसिएल निमाइटिस शेरी मद्य सेवनकी व्यवस्था विधेय है। आरोग्य होनेके | नामसे भी प्रसिद्ध है। ३ चवीं-युक्त वृक्कक ( Fatty वाद भी गरम कपड़े से शरीरको हमेशा ढके रहना) kidney) तथा सफेद चवींयुक्त गृक्कक ( Lardace- चाहिये। वायुपरिवर्तनसे भी बहुत उपकार होता है। वीच ous वा Albuminoid kidney) । वोचमें गरम पानोसे स्नान करा सकते है। ____प्रवल वाइटाख्य रोगको परिणति, ठंद लगने, वार प्रवल पीड़ाके परिणामले अविरत आता वा शोत- 1 बार स्त्रीके गर्भ सञ्चार अथवा यक्ष्मारोगके उपसर्गसे Vol. XVIII. 55