पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२२१

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२१८ मूत्रविज्ञान -शल्कपातज पकौप रोगको उत्पत्ति होती है। यह रोग। युरेटस दिखाई देता है । सूक्ष्म परिवर्शन से कुछ ट्यूब • प्रायः युवक और युवतियोंको हुआ करता है। इसमें एपिथेलियम द्वारा विवृद्ध तथा कुछ संकुचित अथवा दोनों वृक्क बड़े, पांशुवर्णके, चिकने और कोषच्छेदी होते | भग्न एपिथेलियमसे परिपूर्ण रहते हैं । उसकी रक्त- हैं । अणुवीक्षण द्वारा उसके ट्यूवोंके मध्य बहुतसे एपिथे- चाहिमणालियां प्रायः विलुप्त रहती हैं। लियम कोप देखे जाते हैं। वे सब कोप स्फीत, मेघः यह पीड़ा पहले शरीरमें गुप्त भावसे जड पकड़ती वर्णाभ, चरवो-युक्त, कभी कभी रेणुवत् और तैलविन्दु- है। पीछे चर्म शुष्क, कर्कश, मुखमण्डल संकुचित और विशिष्ट होते हैं। रोग प्राचीन होनेसे टयूवोंके परिवर्तन- मान दिखाई देता है। अजीर्णता, दुर्वलता तथा फुस्फुस- के कारण मूत्रयन्त सिकुड़ जाता है। में प्रदाह और युरिमिया दिखाई देनेसे रोगको बद्धमूल रोगके आरम्भमें निस्नोक्त लक्षण दिखाई देते हैं।। हुआ जानना चाहिये । इस समय मून पतला और मूत्र अखच्छ और स्वल्प, अधाक्षेपयुक्त, कभी कभी धूम्र. अधिक परिमाणमें निकलता है, आपेक्षिक गुरुत्व खामा- वर्ण वा रक्तमिश्रित होता है। आपेक्षिक गुरुत्व स्वाभा- विकसे भी कम होता है। परीक्षा करनेसे थोड़ा एलवु विक है. कभी कभी कुछ चढ़ जाता है। इसमें पलवुमेन मेन पाया जाता है। अणुवीक्षण द्वारा स्वच्छ और रेणु- और एपिथेलियमको मात्रा अधिक रहती है । अणुः । चत् सांचे दिखाई देते हैं । रोगकी शेपावस्थामें मूत्र वोक्षण द्वारा पपिथेलियम कोपोंका विशेष परिवर्तन | थोड़ा और बीच बीचमें शोथ उत्पन्न होता है । इससे तथा रेणुमय, चरवी युक्त और खच्छ सांचे दिखाई देते । हृपिण्ड बहुत बढ़ जाता है। हैं। रोगीका मुखमण्डल स्कोत, रक्तशून्य और चम- चरवोयुक्त वृक्क ( Fatty kidney )-मे दोनों मूत्र- कोला दिखाई देता है। शोथ, सिरस, विधानमें प्रदाह यन्त्र बड़े पांशुवर्ण और लोहित चिह्न द्वारा आच्छन्न और धीरे धीरे युरिमियाका उदय होता है। नाक तथा रहते हैं। अणुवीक्षण द्वारा कोषमें तैलविन्दु दिखाई अन्यान्य स्थानोंकी श्लैष्मिक झिल्लीसे वीच वीचमें रक्त देता है। कटा हुआ अंश तैलाक्त होता और कागज स्राव भी हुआ करता है। रखनेसे उसमे दाग पड़ जाते हैं। इथरसे कुछ अंश ___ जर्मनदेशीय चिकित्सक विदित शुभ्र वृतकको | गल जाता है। इसके लक्षण एलघुमिन्युरियाके जैस परिणाम-अवस्थाको ही इसके संकोचनका मूल कारण होते हैं। वतलाते हैं। इङ्गलैण्डके सुविज्ञ चिकित्सकगण वृक्कमें मण्डलालाश्रित वृक्करोगमें दोनों मूत्रयन्त्र बड़े, कौपिकविधानके प्रदाह तथा उस प्रदाहके कारण सफेद, चिकने तथा उसके कोष काले, सूखे और चरवी कौशिकविधानके चापसे ही अन्तमें ट्यूवोंके सोचनकी मिले हुए होते हैं। यूवमें स्वच्छ सांचा दिखाई देता कल्पना करते हैं। है। रोग पुराना होने पर मूत्रयन्त शिथिल हो जाता गेठिया वात, सीसा धातुके द्वारा शोणितकी विषा- है जिससे मूत्र पतला और जलके जैसा होता है। उसका कता, अतिरिक्त सुरापान, खुले वदनमें वार यार ठंढ | आपेक्षिक गुरुत्व ११३से १०५ है। कभी कभी अण्ड. लगना तथा बुढ़ापेको दुर्वलताके कारण आभ्यन्तरिक | लालाथोड़ो और कभी कुछ भी नहीं रहती है । अणुवीक्षण वृक्तकोप ( Chronic interstitial Nephritis ) रोगकी द्वारा छोटे, सफेद और रेणुमय सांचे नजर आते हैं। इस- सहजम उत्पत्ति हो सकती है। में शोथादिका कोई विशेष परिवर्तन नहीं देखा जाता। इसमें धीरे धीरे दोनों मूत्रयन्त्र खर्व तथा कैपस्युल गर्भके आरम्भमें स्नैहिक स्नायुमण्डलीके विकारके अखच्छ, कठिन और दुर्भेय होते हैं । काटनेसे वे उपास्थि कारण गर्भिणी वार वार मूत्रत्याग करती है। यह वहु- ( Cartilage )-विधानकी तरह मालूम होते तथा मूत्ररोगसे विलकुल खतन्त्र है । गर्भके अन्तिम कुछ लोहित वा पाटलाभ-लोहितवर्ण दिखाई देते हैं। वीच- महोनोंमें भ्रूणके अनुलम्ब वा दैर्ध्य एपिसस वा मध्यदण्ड- बीचमें सिप्ट (कोप ) रहता है। प्रन्थिवातयुक्त वृक्को | के वस्तिकोटरके बड़े भाव में रहनेसे मूत्रकोपके ऊपर