पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२२२

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मूत्रविज्ञान-मूत्राघात २१६ दवाव पड़ता है। अतएव इससे धारणाशक्तिका हास gans, Pentastoma denticulatum और Filaria होता है और इसीले गर्भिणी बहुत मूखत्याग करती है। sanguinus hominis आदि परागपुष्ट कीट ( Para- हाथसे परीक्षा करके यदि भ्रूणका अड़े भावमे रहना | sitic gronths ) उत्पन्न होते हैं। कभो मूलमें पथरी स्थिर किया जाय, तो उसको हाथसे उदके ऊपरकी। | (Urinary calculi) उत्पन्न हो कर रोगको और भी ओर लम्व भावमें स्थापित कर दे तथा जिससे वह फिर कठिन बना देती है। मूत्रयन्त्रके मध्य पथरी होनेसे पूर्वावस्थामे न गिर पड़े इसके लिये एक बन्धनो (bon रोगीकी कमरमें जो शलवत् वेदना होती है उसे वृकक शूल dage ) लगा देनी चाहिये । इससे वार वार जो पेशाव | ( Reval colic) और मूत्राशय प्रदाह (cystitis) आता है, सो वन्द हो जायगा। कहते हैं। विशेष विवरण वृक्कक शब्दमें देखो। ___ इस प्रकार मूत्रत्यागकालमें किसी किसी प्रसूतिके | मूत्रविवन्धन (सं० वि०) मूत्र विवन्ध हन्ति हन-ढक् । सूत्रमें फोस्फेटस नामक पदार्थाका चूर्ण वरतनके नीचे | मूखविवन्धरोगनाशक । जम जाता है। ऐसी हालतमें गर्भिणी स्वभावतः दुल मूत्रविष (सं० नि०) मूत्रयोगमें विषाक्त । हो जाती है। उसके वलाधान और मूत्रसंस्कारके लिये | मूत्रवृद्धि (सं० स्त्री०) अन्तबुद्धिरोग । २ मूत्रकी विज्ञ चिकित्सकको बलकारक और लौहघटित औषध वृद्धि । तथा उपयुक्त पथ्यका प्रयोग करना चाहिये। मूत्रशुक (सं० फ्लो०) मूत्राघातरोगविशेष । जिस प्रकार किसी विशेष कारणसे गर्भावस्था ____ मूत्राघोत देखो। चार बार मूत्रत्याग होता है प्रायः उसी प्रकार गर्भिणी- मूत्रशूल (सं० पु०) मूलके समय शूल वा वेदना। के मूत्रावरोध भी हुआ करता है। गर्भके प्रथम ३२४ मास मूलशोधनिका (सं० स्त्री०) चिटिका, वनककड़ी। में जरायुका पीछेको ओर घूम जाना ही इसका प्रधान | मूत्रशौक्ल (सं० क्लो०) श्लेष्मज मूत्ररोग । श्लेष्माके कारण है। क्योंकि, इस अवस्थामें वस्तिकोटरके मध्य विगड़नेसे जव मूतदोष उत्पन्न होता है, तव मूत्र सफेद जरायु वक्रभावमें दवा रहता है जिससे मूत्रनाली अव- दिखाई देता है। मूत्र और मूत्रकृच्छ देखो। रुद्ध हो जाती है। मूत्र जितनी वार रुकेगा, उतनी वार मूत्रसंक्षय (सं० पु०) मूत्रक्षयरोग। शला ( Catheter ) द्वारा पेशाव कराना उचित है, नहीं | मूत्रसङ्ग (सं० पु०) मूत्राघात रोगभेद, मूत्रोत्सङ्ग रोग। तो भूत्रकोषके पेशावसे भर जानेसे श्लैष्मिक झिल्ली | मूबसाद (सं० पु०) मूत्राघातरोग। (mucous membrane ) की पीड़ा उत्पन्न होती है। मूत्राघात (सं० पु० ) मूत्रस्य आघातो निरोधी येन । पेशाव करानेके वाद हाथसे वस्तिकोटरसे जरायुको | प्रनावरोधक रोगविशेष, पेशाव बंद होनेका रोग ।

उठा देना चाहिये। ऐसा करनेसे भविष्यमें कोई शिका- वैद्यकमें यह रोग बारह प्रकारका कहा गया है, वात-

यत नहीं रहने पातो। मूत्रकृच्छ और मूत्राघात देखो। कुण्डली, वातप्ठोला, वातवस्ति, मूत्रातीत, मूत्रजठर, __उपरोक्त कारणसे केवल मूत्र ही नहीं बिगड़ता, मूत्रोत्सङ्ग मूतक्षय, मूत्रप्रन्थि, मूत्रशुक्त, उष्णवात तथा पर मूत्रयन्त्र वा वृक्कको भी कई उपसर्ग देखे जाते हैं। दो प्रकारका मूत्रोकसाद, कफज, और पित्तज। . कक मूवयन्तको गोलो ( Tubercle of the kid वातकुण्डली-इसमें वायु कुपित हो कर वस्तिदेश- ney ) गल कर छोटे छोटे स्फोटक उत्पन्न करती है। में कुण्डलीके आकार में टिक जाती है। इससे पेशाव ट्यु धाकल द्वारा युरिटाके आवद्ध होनेसे मूत्रयन्त्र सूज | बंद हो जाती और वस्तिदेशमें वेदना होती है तथा पेशाव जाता है। कभी कभी अर्बुदके निकलनेसे मूत्रयन्त । बड़े कष्टसे थोड़ा थोड़ा करके आता है। ककटरोगसे ( cancer of kidney ) आक्रान्त होते वातष्ठीला-इसमें वायु मूल द्वारा या वस्तिदेशमें देखा जाता है । फिर कभी मूत्रयन्त्रमें Hydatid गांठ या गोलेके आकारमें हो कर पेशाव रोकती है। eyst, Bilharaia haematobia, Strongylus gii वातवस्ति-इसमें मूत्रके वेगके साथ ही वस्तिको