पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२२६

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मू»पा-मूर्छारोग २२३ मूक्षिणा (सं० पु० ) मूच्छांके साथ प्रवल अनिच्छी-। जमीन पर अकस्मात् गिर पड़ता है और बहुत देर में प्रकाश। | होशमें आता है। मिरगीसे भेद इतना होता, है, कि मूर्छागत (सं० वि०) मूछा गतः २-तत् । मूच्छित, । इसमें मुहसे फेन नहीं आता, दांत नहीं बैठते और मूर्छापन्न। नेत्र विकृत नहीं होते हैं। रक्तज मूर्छामें अंग, स्कन्ध मूर्छारोग ( सं० पु०) रोगविशेष, वायुरोग । इस रोगमें। और दृष्टि स्थिर-सी हो जाती है तथा सांस साफ चलती रोगी मूञ्छित हो जाता है। वैद्यकशास्त्र में इसके निदा- नहीं दिखाई देती । मद्यज मू में रोगी हाथ पैर नादिका विषय इस प्रकार लिखा है,-विरुद्ध वस्तुका मारता और अनाप शनाप वकता हुआ जमीन पर गिर खा जाना, मलमूत्रका वेग रोकना, अस्त्रशस्त्रसे सिर पड़ता है। जब तक मद्य नहीं पचता, तब तक यह आदि मर्म स्थानों में चोट लगना अथवा सत्त्व गुणका : मूर्छा दूर नहीं होती। विषज मू में कम्प, प्यास खभावतः कम होना, इन्हों सब कारणोंसे चातादि दोष और झपको मालूम देती है तथा जैसा विप हो, उसके मनोधिष्ठानमें प्रविष्ट हो कर अथवा जिन नाडियों द्वारा अनुसार और भो लक्षण देखे जाते हैं। इन्द्रियों और मनका व्यापार चलता है उनमें अधिष्ठित मूर्छा होनेके कारण जो भ्रम मालूम होता है उसे हो कर तमोगुणकी वृद्धि करके मूर्छा उत्पन्न करते हैं। भ्रमरोग कहते हैं। वायु, पित्त और रजोगुणके एक मूर्छा आनेके पहले शैथिल्य होता है, जंभाई आती साथ मिलनेसे भ्रमरोगको उत्पत्ति होती है। इस रोग- है और कभी कभी शिर या हृदयमै पीड़ा भी जान | पीमा भीमा में रोगो अपने शरीर तथा सभी पदार्थोंको घूमते हुए पड़ती है। मालूम करता है, इसी कारण वह खड़ा नहीं रह सकता और यदि खड़ा रहे, तो गिर पड़ता है। मूर्छारोग सात प्रकारका कहा गया है, जैसे-वातज, | ___ वातादि दोष जव अत्यन्त कुपित हो कर प्राणाधि- पित्तज, श्लेष्मज, सन्निपातज, रक्तज, मद्यज और विषज ।। भिन्न भिन्न मू में पृथक् पृथक दोषको अधिकता प्ठान हृदयको दुषित कर देते हैं तथा उस दुर्वल रोगीके रहनेसे भी सभी मूर्छा रोगोंमें पित्त ज्यादा रहता है। मन और इन्द्रियोंके कार्योंको विनष्ट कर अत्यन्त मूच्छित क्योंकि, पित्त और तमोगुण मूर्छा रोगका आरम्भक है। कर डालते हैं तव उसे संन्यास रोग कहते हैं। अत्यन्त वातज मू में रोगोको पहले आकाश नोला था मू का नाम ही संन्यास है। यह रोग अत्यन्त भया- काला दिखाई पड़ने लगता है और वह बेहोश हो जाता नक है । सूचीवेध, तीक्ष्ण अञ्जन, तोक्ष्ण नस्य आदि तुरत . है, पर थोड़ी ही देरमें होशमें आ जाता है। इसमें कम्प होशमें लानेवाले उपायोंका अवलम्वन नहीं करनेसे यह अङ्गमद, हृदयमें पीड़ा, शारीरिक कृशता, देहका व रोग दूर नहीं होता, रोगो थोड़े ही समयमें प्राणत्याग करता है। . श्याम वा लाल हो जाता है। पित्तज मूर्छा में रोगी चिकित्सा। पहले आकाशको लाल, पीला या हरा देखते देखते मू रोगके आक्रमण-कालमें आँख और मुह आदि बेहोश हो जाता है और मूर्छा छूटते समय उसको स्थानोंमें ठंडे जलका छींटा दे कर मूर्छाको दूर करना आँखें लाल हो जाती हैं, शरीरमें गमीं मालूम होती है, आवश्यक है। होशमें आने पर उसे मुलायम विछावन प्यास लगती है और शरीर पीला पड़ जाता है । श्लेष्मज पर सुला कर पंखा करे। दांतोंके बैठ जानेसे उसे मूच्छामें रोगी स्वच्छ आकाशको भी यादलोंसे ढका और फौरन जिस किसी उपायसे हो, छुड़ा दे। जलके अंधेरा देखते देखतं बेहोश हो जाता है और वहुत देरमें छीटोंसे यदि मूर्छा न छूटे, तो निशोदलका टुकड़ा दो होशमे आता है। मूर्छा छूटने समय शरीर ढीला और भाग और सूखा चूना दो भाग, इन्हें एकत्र एक शीशीमें भारी मालूम होता है और पेशाव तथा वमनको इच्छा भर कर रोगीको सुघावे। सैन्धवलवण, मरिच और होती है। सन्निपातजमें उपयुक्त तीनों लक्षण मिले | पीपल. इन्हें जलमें पीस कर सघनेको दे। शिरीष जुले प्रकट होते हैं और मिरगीके रोगीकी तरह वह | वीज, पीपल, मरिच, सैन्धवलवण, लहसुन, मैनसिल,