पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२२८

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मूरिंग-मूच्छित २२५ ध्यक्तियोंको स्वाभाविक शारीरिक दुर्बलता और रक्तकी । निया भी सुधा सकते हैं। इसकी तीव्र गंध मस्तिष्क- तरलताके कारण भी यह रोग हुआ करता है। को रुद्ध वायुको मथ देती है जिससे रोगी होशमें आ मू के कारणानुसार हपिण्ड में भी अनेक परि- सकता है। वर्तन होते हैं। यदि रक्त निकलने के कारण मूछो एमोनिया, मृगनाभी ( Musk ), ब्राण्डी और इथर और मृत्यु हो जाय, तो हत्कोटर संकुचित हो जाता है। आदि टिमुलेएट ( उत्तेजक ) औषध इस रोगमें बहुत हपिण्डकी पेशीको अवसन्नताके कारण रोग होनेसे लाभजनक है। रोगी यदि कोई चीज निगल न सकता सभी कोटर फैल जाते तथा उनमें तरल और संयत रक्त | हो, तो टिमुलेण्ट, एनिमा या इथरके हाइपोडार्मिक देखा जाता है। इस समय फेफड़े और मस्तिष्कमें रक्त सिरिञ्ज (पिचकारी) द्वारा इजेक करना हो उचित है। विलकुल नहीं रहता। रोग कठिन होनेसे हपिण्डके भीतर रक्त टिकानेके लिये मूर्छा हठात् अथवा उपरोक्त कई लक्षणोंके वाद हाथ और दोनों पैरको टुनिकेट वा एसमार्कस वैण्डेज उपस्थित होती है। इस समय कुछ पहले अत्यन्त दुर्वः द्वारा बांध दे। हृपिण्डके स्थानमें उत्ताप, उत्तेजक लता, शिर घूमना, हस्तपदादि कंपन, उदके ऊद्ध व लिनिमेण्ट, मष्टाड प्लप्टर और वैधु तिक स्रोत संलग्न देशमें वेदना, विवमिषा वा वमन, मुखमण्डल चिन्तायुक्त करे। इसके अलावा हाथ और पैरमें गरम जलसे भरे और पांशुवर्ण, गात्रचर्म पसोनेसे तरावोर, समय समय हुए वोतलको ताप देना उचित है। कभी कभी रक्त- कम्प, क्षणिक शीत और क्षणिक प्रोष्मानुभव, नाड़ी पहले संक्रमण (Trans-fiusion of blood) वा कृत्रिम उपाय- द्रुत और क्षीण, पीछे मृदु और अनियमित, श्रवण और से श्वास प्रश्वास सञ्चालन करना आवश्यक है। दृष्टिशक्तिका व्यतिक्रम (विशेषतः कानमें अनेक प्रकारका | ___ मिरगी वा अपस्मार रोगमें भी (Epilepsy) मूळ होती है। इसकी चिकित्सा और लक्षणादि यथास्थानमें शब्द सुनाई देना और रोशनी देखने में तकलीफ होना)। लिखा गया है। अपसार देखो। श्वास, प्रश्वास तेज, अनियमित और शोकजनक, सर्वदा ___ मस्तिष्क क्रियाके विगड़नेसे आक्षेपादियुक्त जो जुम्मण, अस्थिरता तथा कभी कमी आक्षेप आदि लक्षण मूर्छागत वायुरोग उपस्थित होता है अंगरेजीमे उसे भो देखे जाते हैं। इसके बाद ही रोगीको मूर्छा आ Hysteria कहते हैं। यह रोग अक्सर युवती और जाती है। युवकको ही हुआ करता है। १५से २० वर्षको विधवा, मूर्छागत रोगीका वर्ण प्रायः मृतदेहके वर्णके जैसा अविवाहिता और वन्ध्या स्त्रियां ही इस रोगसे आक्रान्त मालूम होता है। गात्रचर्म शीतल और पसीनेसे तरा- देखी जाती हैं। ऋतुकालमें रजके अच्छी तरह नहीं बोर, कनीनिका प्रसारित तथा नाड़ो अत्यन्त क्षीण और निकलने तथा मानसिक अस्वच्छन्दताके कारण ही यह मृदु हो जाती हैं। श्वास प्रश्वास मृदु और अनियमित रोग उत्पन्न होता है। भावसे वहता रहता है। कभी कभी रोगीकी वेहोशोमें विशेष विवरण हिप्टिरिया शब्दमें देखो। मलमूत्रत्याग होते भी देखा जाता है। इस अवस्थामें मूर्छाल (सं०वि०) मूर्छा अस्त्यस्येति (सिध्मादिभ्यश्च । रोगो धीरे धीरे आरोग्य हो भी सकता है और नहीं भी पा ।।६७) इति लन् । मूछित, जिसे मूर्छा आई हो। हो सकता है। मूर्छाकालमें हृत्पिण्डके ऊपर प्टेथो. मूच्छित (सं०नि०) मूर्छास्य साता मूर्छा, तारकादि- स्कोप नामक यन्त्र लगा कर सुननेसे पहला शब्द बहुत त्वादि तच् । १मूर्छायुक्त, वेहोश । पर्याय-मूर्त, मूर्छाल, मृदु सुनाई देता है। २ मारा हुआ । यह पारे आदि धातुमें व्यवहत होता है। किसी प्रत्यावर्त्तनिक कारण द्वारा यह रोग होनेसे ३ वृद्ध, बूढ़ा। ४ मूढ, वेवकूफ । ५ व्याप्त, फैला हुआ। पहले उसीको दूर करना उचित है। रोगीको सुला कर किं नु खल्वद्य गम्भीरो मूर्चिछतो न निशाम्यते । उसके कपड़े लत्ते खोल देने और मुख पर ठंढे जलका यथा पुरमयोध्यायां गीतवादित्रनिलनः" छोटा देनेसे बहुत उपकार होता है। वीच वीचमें एमो- ( रामायण २११४।१६) Val, XII167