पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२३१

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२२८ मूर्वायय -मूल पीलुकी, नवा, मूर्वी, मधुश्रेणी, धुनु, श्रेणी, सुरङ्गिका, क्षत्रिय लोग उपनयन कालमें मूकी मोखला धारण देवश्रेणी, पृथक्त्वचा, मधुसवा, अतिरसा, पोलुपर्णिका, करते थे। दिव्यलता, ज्वलिनी, गोपवल्ली। "मौखी त्रिवृत्समा श्लचमा कार्या विप्रस्य मेखला ___ इसमें सात आठ डंठल निकल कर इधर उधर लता- तत्रियस्यतु मौर्वी ज्या वैभ्यस्य शिणवान्तवी।" को तरह फैलते हैं। फूल छोटे छोटे, हरापन लिए सफेद (मनु २२४२) रंगके होते हैं। हिमालयके उत्तरखण्डको छोड़ कर मूर्विका (सं० स्त्री० ) मूर्वा । भारतवर्ष में और संव जगह यह लता होती है। मूल (सं० क्ली० ) मवते वध्नाति वृक्षादिकमिति मू- इसकी सरस पत्तियोंसे रेशे निकलते हैं जो बहुत | म शक्यविभ्या क्लः । उण ४५१०८ ) इति क्ल।१ पेड़ोका मजबूत होते है। इससे प्राचीनकालमें उन्हें घर कर वह भाग जो पृथ्वीके नीचे रहता है, अड़। धनुषकी डोरी बनाई जाती थी। उगनयनमें क्षत्रिय लोग "भक्ष्यं भाज्यञ्च त्रिविधं मलानि च फलानि च । मूर्वाकी मेखला धारण करते थे। एक मन पत्तियोंसे हृद्यानि चैव मांसानि पानानि सुरभीणि च॥" आध सेरके लगभग सूखा रेशा निकलता है। कहीं कहीं (मनु०.३२२२७) उससे रस्सी और चटाई भी बनाई जाती है । यूरोपमें इसके २ आदि, आरम्भ । ३ निकुंज। ४ पास, समीप । रेशेसे समुद्रतलको साफ करनेवाले मजबूत जाल बनाते ५ मूलवित्त, असल जमा या धन जो किसी व्यवहार या हैं। विचिनापल्लीमें मूके रेशोंसे बहुत अच्छा कागज व्यवसायमें लगाया जाय। वनता है। परन्तु इसमें खर्च ज्यादा पड़नेके कारण व्यव. "अथ मलमनाहार्य प्रकाशक्रयशोधितः। सायियोंके लिये सुविधाजनक नहीं है। अदपदयो मुच्यते राशा नाष्टिको लभते धनम् ॥" मूर्वाके रेशे बहुत मुलायम और रेशमकी तरह सफेद (मनुसं० ८२०२) होते हैं। तुरत हो तोड़ी हुई पत्तीको टोकरेमें रख कर आदि कारण, उत्पत्तिका हेतु 1 ७ नीच, बुनियाद । किसी उपायसे उसका रस निकाल डाले। वाद उसमें ८ प्रन्थकारका निजका वाक्य या लेख जिस पर टोका वहुत वारीक रेशे देखने में आयेंगे। अनन्तर उन्हें चार | आदि की जाय। ६ शूरण, जिमीकन्द । १० पिप्पलो पांच मिनट तक जलमें रख कर अच्छी तरह धो डाले | मूल । ११ पुष्कर मूल। १२ कुड़विशेष । १३ अश्विनी और तब छायामें सुखा कर कुल रेशे निकाल ले।। आदि सत्ताईस नक्षत्रोमैंसे उन्नीसवाँ नक्षत्र । इस नक्षत्र- चालीस मन पत्तियोंसे कभी कभी एक मन रेशा निक- | का नाम मूल वा मूला है। निति इसके अधिपति लता है। हैं। इसका आकार सिंहपुच्छके जैसा तथा शङ्खमूर्ति मूर्वाकी जड़ औषधके काममें आती है। वैद्य लोग | और नवतारामय है। यह नक्षत्र अधोमुख नक्षत्र है। इसे यक्ष्मा और खांसी में देते हैं। वीज और पत्तीका यह वानर जातिका है। शतपद-चक्रानुसार इस नक्षत्र- रस सांपके काटनेकी एक महौषध है। इससे घोन्नस | में भू, ध, फ, द, इन चार पदोंके यथाक्रम यही चार नाम, नामक सर्पविष दूर होता है, इसी कारण मराठी भाषा | होते हैं। इस नक्षत्रमें जिसका जन्म होता वह वृद्धा. वस्थामें दरिद्र, अत्यन्त चिन्तित, समस्त कालानुरागी, मूर्वाका एक नाम 'धोनसफन' भी है। मातृ-पितृहत्ता और आत्मीय सजनका उपकारी. होता वैद्यकके मतसे इसका गुण-अतिरिक्त, कषाय, उष्ण, हृद्रोग, कफ, वात, वमि, प्रमेह, कुष्ठ और विषम- है। (कोष्ठीप्र० ) इस नक्षत्र में मांस नहीं खाना चाहिये। चित्रासहस्वाश्रवणासु तैलं क्षौर विशाखाश्रवणासु पन्ज्यम् । ज्वरनाशक । ( राजनि०) भावप्रकाशके मतसे-पित्त, अत्र, मेह, त्रिदोष, तृष्णा, हृद्रोग, कुष्ठ, कण्डु और ज्वर- म ले मृगे भाद्रपदासु मांस योषिन्मघाकृत्तिकसोत्तरामु ॥" (तिथितत्त्व) नाशक। १४ दुर्गराष्ट्र । मूमय (सं० पु० ) मूर्यास्वरूपे मयट् । सूर्यास्वरूप ।।