पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३६ मूलराज-मूलसिंह मूलराज--गुजरातके सोलाको वंशीय एक राजा। ये मूलव्यसन (सं० क्ली० ) मूलञ्च तद्व्यसनञ्चेति । मारण, चावंड़वंशके अन्तिम राजा सावन्त सिंहके नाती थे। वधका दण्ड। - इन्होंने ५६ वर्ष तक राज्य किया। प्रवाद है, कि माताके | : "चण्डालेन तु सोपाको मूलव्यसनवृत्तिमान । पेटको फाड़ कर ये बाहर निकले थे। घुक्कस्या जायते पापः सदा सजनहितः ॥" मूलराज-मूलराजप्रदेशके एक हिन्दू राजा। १८४८ ई०में । (मनु १०३८) वृटिश सरकार के विरुद्ध खड़े होनेसे ये निर्वासित हुए "व्यसनं दुःख तस्य मूलं मारणं तवृत्तिः ।" । थे। मूलतान देखो। (मेधातिथि) मूलवचन ( सं० ली० ) मूलञ्च तत् वचनञ्चेति । १ प्रकृत प्राणदण्ड पाने योग्य व्यक्तियोंका जो राजाकी वचन । २ मूल ग्रन्थका वचन । आज्ञासे वध करता है उसे मूलव्यसनमूर्तिमान कहते हैं। मूलचणिगधन (सं० क्ली०) चणिजां धनं वणिगधनं मूलंबतो (सं० वि० ) मूल खा कर गुजारा चलानेवाला। मूलं वणिगधनं । वणिकोंको मूल धन, वणिकोंकी मूलशकुन (सं० पु०) प्रथम पक्षी। (वृहत्स० ६५६०) पूंजी। मूलशाक्ट (सली० ) मूलानां भवन क्षेत्रं मूल ( भवने मूलवत् (सं० वि०) १ सुमिष्ट मूलयुक्त, जिसको जड़का क्षेत्रे इत्यादिभ्यः शाकटशाकिनी। पा ५।२।२६) इत्यन वार्तिक स्वाद मीठा हो। २ जड़के गुणकी तरह कार्यकारी। । वलात् शाकट । मूलक्षेत्र, वह खेतमें जिसमें मूली, गाजर मूलवाप (सं० पु०) वह जो वृक्षोत्पादनके लिये जड़ | आदि मोटो जड़वाले पौधे वोए जायं।. लगाते हो। मूलशोधन ( सं० पु० ) पुण्डरीक वृक्ष । मूलपित्त (सं० को०) मूलञ्च तत् वित्तञ्चेति। मूलधन, | मूलसङ्घ (सं० पु०) आदि जैनसम्प्रदायभेद। पूंजी। मूलसर्वास्तिवाद (स' पु०) चौद्धसम्प्रदायभेद । मूलविद्या (सं० स्त्री०) १ प्रधान ज्ञान। २ द्वादशाक्षर मूलसाधन (सं० क्लो०) प्रधान अवलम्बन, मूल अस्त्र । मन्त्रविशेष । मूलसिंह-जयसलमेरके रावल । इनका असल नाम मूलराज मृलविनाशन (सं० क्ली० ) जड़से नाश। सिह था, पर लोग इन्हें मूलसिंह ही कहा करते थे। . मूलविभुज (सं०वि०) जो जड़को टेढ़ा कर लाठो आदि अखैसिंहकी मृत्यु होने पर ये हो राजसिंहासन पर बैठे। वनाता हो। इनके तीन पुत्र थे, रायसिंह, जैतसिंह और मानसिंह। मूलविरेचन (सं० पु०) मूलं घिरेचनमस्य । तृवृतादि | रावल मूलराजके मंत्रीका नाम स्वरूपसिंह था । वह शिफारूप श्रेष्ठ विरेचन । घड़ा ऊधमी और दुराचारी था। उसको स्वेच्छा- "सप्तला शचिनी दन्ती द्रवन्ती गिरिकणिका। चारितासे जयसलमेरको क्या प्रजा, क्या सामन्त मण्डली तृवृच्छयामोदकीर्या च प्रकी- कीरिणी तथा ॥ सभी तंग तंग आ गये थे। उसके अत्याचारसे पोड़ित छगलायडी गवाक्षी च कुचाक्षी गिरिकर्णिका । सरदारसिंह नामक एक सरदारने युवराज रायसिंहसे मसूरविदला चैव भवेन्मूलविरेचनम् ॥" प्रार्थना की, 'आप ऐसा कोई प्रबन्ध कर दें जिससे हम (वाभट चिकित्० ६०) लोगोंको इस दुःखसे. छुटकारा मिले।' रायसिंह उससे सप्तला, शङ्खिनो, दन्ती, द्रवन्ती, गिरिकर्णिका, | अप्रसन्न थे ही, वे सहज ही सम्मत हो गये। एक दिन निसोथ, गुलञ्च, नटकर, कण्टको करज, क्षीरिणी, छग राजसभा रायसिंहने खरूपसिंहको कत्ल करनेके लिये लाण्डी, गवाक्षी, कुचाक्षी, गिरिकर्णिका और मसूरविदला | म्यानसे तलवार निकाली । वरूपसिंहने भाग कर ये सब द्रव्य श्रेष्ठविरेचन कहे गये हैं। मूलराजकी शरणमैं जाना चाहा, पर युवराजकी तलवार ने बड़ी शोघ्रतासे उसका काम तमाम कर दिया। उसी मूलचिप (सं० क्ली०) मूले विषमस्य । जिसकी जड़ विपैली हो, मैले कनेर । i समय सरदार सिंहने मूलराजको भी मारनेका प्रस्ताव