पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- मृगा-मुगाटवी - मुगा (सं० स्त्री०) मृगमांसतुल्य रसोऽस्ति अस्याः मृग- । पथ्य है। इसके अलावा महामृगाङ्क और राजमंगा? "अशे-आदिभ्योऽच । सहदेवी लता। मुगांक्षी (सं०. स्त्री०) मृगस्येव अक्षि तद्वत्पुष्णं वा प्रणाली-सोनेकी भस्म १ भाग, पारेको भस्म २ भाग, , रस भी बतलायो गया है। इस महामृगाङ्करसको प्रस्तुत अक्षिणी नयने अस्या, अक्षि ( अक्ष्नोऽन्यतरस्यां । पा ५॥४॥ मुक्ताकी भस्म ३भाग, गन्धक ४ भाग, सोनामक्खी ५ ५७६.) इति अच् स्त्रियां डोष् । १ विशाला । मृगलोचन भाग, मूगा ६ भाग और सोहागेका लावा १ भाग, इन्हें तुल्यनेनयुक्का, हरिणकेसे नेत्रोंवाली। एकत्र कर टावा नीवूके रसमें तीन दिन मल कर गोला- मृगाखर (सं० पु०) वन्यपशुका गर्ज, जंगली जन्तुके रहने कार वनावे। पोछे उसे कड़ी धूपमें सुखा कर भूपाके का मान। मध्य लवणयन्त्रमें ४ पहर पाक करे। जव ठंढ़ा हो जाय, भगाङ्क (सं० पु०) मृगः अङ्को यल्य। १ चन्द्रमा। तब औषधको निकाल कर उसके साथ हीरा एक भाग, विनिद्रपचालिगतालिकेतवान् । (अभावमें वैक्रान्तं ) मिलावे। इसकी माला २ रत्तो .मगाङ्कचूड़ामणिवर्ज़नार्जितम् ॥" (नैषध ११७८) और अनुपान मिर्च वा पीपल चूर्णके साथ घृत है। इस “चन्द्रमामें मृगचिह्न है, इस कारण उनका मृगाङ्क | औषधके सेवनकालमें घृतादि वलकर द्रव्य खाना तथा नाम पड़ा। चन्द्रमा पर पृथिवीको छाया पड़ती है, ! क्षयरोगोक्त विधिके अनुसार चलना आवश्यक है। इस उसी छायाको बहुत दूर रहनेके कारण लोग चन्द्रकलङ्क | | का सेवन करनेसे यक्ष्मा, स्वरभेद और काषादि नाना कहते हैं।...यथार्थमें वह कलङ्क नहीं है, पृथ्वीकी छाया- प्रकारका रोग शान्त होता है। मात है। राजमृगाङ्करस-पारा 8 तोला, सोना १ तोला, ."लोकच्छायामय' लक्ष्म तवाङ्क शशसंस्थिम् । तांवा १ तोला, मैनसिल २ तोला, हरताल २ तोला,गंधक ': न विदुः सोमदेवापि ये च नक्षत्रयोनयः ॥" ( हरिवंश) २ तोला, इन्हें एक साथ पीस कर बड़ी बड़ी कौड़ीमें . . 'यथा दर्पणं प्राप्य परावृत्ता नयनरश्मयः प्रीवास्थमेव भरे। पीछे वकरीके दूधमें सोहागा पीस कर उससे मुखं दर्पणगतमिव पश्यन्ति एवं चन्द्रमण्डलं प्राप्य परा सभो कौड़ियोंका मुंह वन्द कर दे तथा मट्टोके भांडमें वृत्तास्ते दूरत्वदोषात् पृथिवीमध्यक्तरूपामिव चन्द्रमण्डल- रख कर ऊपरसे अच्छी तरह लेप चढ़ा दे। पीछे लेप गतां पश्यन्ति स एव चन्द्रे कलङ्क इत्युपचयंते' ( टीका) सूख जाने पर गजपूटमें पाक करे और ठंढा हो जाने पर २ कपूर कपूर। ३ वायु, हवा! .. : औषध चूर्णको बाहर निकाल ले। इसको मात्रा २ रत्ती मुगाङ्कगुप्त-नवसाहसाङ्कचरितके प्रणेता पमगुप्तके और अनुपान घृत, मधु वा १० पीपल अथवा १६ मिच पिता। .. .. है। इसका सेवन करनेसे सभी प्रकारका क्षय दूर होता मुगाङ्ककज (संपु०) मृगाङ्क जन-ड। १ कस्तूरी ।२ है। (भैषज्यरत्ना० राजयक्ष्मरोगाधि०) चन्द्रज्ञ, बुध। .. मृगाङ्कदत्त (स: पु) अयोध्याराज अमरदत्तके पुत्र मृगाङ्कलेखा (सं० स्त्री०) विद्याधर-राजकन्याभेद । तथा अष्टाङ्गहृदयटीकाके प्रणेता अरुणदत्तके पिता। -मुंगावती (सं० स्त्री० ) उज्जयिनीके राजा धर्मध्वजकी मृगाडूरस (स.. पु०) औषधविशेषं । प्रस्तुत प्रणाली-पारा स्त्रीका नाम । २ विद्याधरराज मृगासेनकी स्त्रीका नाम । एक भाग, सींनी एक भांग, मुक्तो दो भाग, गन्धक दो मृगाङ्गक (सं० पु०) मुगाङ्क, चन्द्रमा। भाग और सोहागा एक भाग, इन्हें कांजीमें पीस कर मृगाङ्गजा (सं० स्त्री०)१ मृगताभि, कस्तुरी ।२वारुणीलता । लवणके भाण्डमें भर चार पहर तक पाक करे। इसकी मृगाइना ('स' स्त्री०) मृगाणामङ्गना। हरिणी, हिरनी। माता धरती है। यह औषध मिर्च, पीपल और मधुके गाजीव (स. स्त्री०) १ मृगनाभि, कस्तूरी। २ वारुणी सार्थ चाटनेसे राजयक्ष्मरोग नष्ट होता है । यह औषध | लता । ३व्याध । ' खानेके बाद अविदाही घृत, पक्व व्यञ्जन और लघुमांस । मंगाटवी (सस्त्री०) मृगकानन, मृगवन ।