पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२५७

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२५४ मृतवस्त्रभृत्-मृतसञ्जीवनीरस ध्यापदुदोषभेद । शुक्रशोणितके विगड़नेसे योनिव्यापद्से | विद्या सीखी थी। (भारत १९७०-८० भ०) मृतसञ्जा- ही मृतवत्सा दोष उत्पन्न होता है। योनिब्यापद् देखो। बनी मन्त्र जपनेसे सर्वार्थ सिद्ध होता है। मृतवस्त्रभृत् (सं० वि०) मृतके परिच्छदादि पहननेवाला । मृतमञ्जीवनी (सं० स्त्री०) ज्वररोगकी औषधविशेष । . मृतवार्षिक (सं त्रि०) अहोराविव्यापी वर्षेणसंबंधीय। प्रस्तुत प्रणाली एक वर्षका पुराना गुड़ ३२ सेर, कूटी मृतशब्द (स० पु०) मृत्युसवाद। हुई वाक्लेकी छाल २० पल, अनारकी छाल, अड़ सको मृतसंस्कार (स० पु०) मृतस्य संस्कारः। मृतव्यक्तिकी छाल, मोचरस, वराकान्ता, अतीस, असगंध, देवदारु, संस्कारदाहादि .अन्त्येष्टि-क्रिया। . बेलकी छाल, परवलकी छाल, शालपणी, पिठवन, वृहती, ' मृतसञ्जीवनी (सं० क्ली० ) मृतव्यक्तिका प्राणदान, मु. कण्टकारी, गोखरू, वेर, ग्वालककड़ीका मूल, चितामूल, को जिला देना। । केवांचका वीज और पुनर्नवा प्रत्येकका चूर्ण १० मृतसञ्जीवनरस (सं० क्लो०) ज्वररोगनाशक रसौषध | पल तथा जल २५६ सेर। इन्हें एक मा विशेष। बनानेका तरीका-रस १ तोला और गंधक २ एक भांडमें रखे और ऊपरसे ढक्कन द्वारा ढक दे। १६ तोला, इन्हें खलमें अच्छी तरह धौर कर काजल वनावे ।। दिनके बाद उसमें सुपारी ४ सेर और धतूर का मूल, पीछे उसमें अवरक, लोहा, तांवा, विष, हरताल, कौड़ो लवङ्ग, पद्मकाष्ठ, खसकी जड़, रक्तचन्दन, सोयां, यमानी, को भष्म, मैनसिल, हिङ्गल और सोनामक्खी, प्रत्येक मिर्च, जीरा, कृष्णाजीरा, कचूर, जटामांसी, दारचीनी, १ तोला तथा अतीस १ तोला, चितामूल १ तोला, | इलायची, जायफल, मोथा, सोंठ, गठिवन, मेथी, मेढा- हस्तिशुण्डका मूल १,तोला और त्रिकटु १ तोला डाल सिंगी और सफेद चन्दन प्रत्येक दो पलको अच्छी तरह

फर अच्छी तरह पीसे। बादमें अदरक, निसोथ और कूट कर डाल दे। अनन्तर पहलेके जैसा फिरसे ४ दिन

.सिद्धि नामक प्रत्येक द्रव्यके रसमें तीन दिन तक भावना तक उसी भांडमें रख कर ढक दें। इसके बाद यथा- है। इसके बाद फिरसे मथ कर चिथड़े और मट्टीसे विधान वकयन्त्रमें चुभा कर मद्य तैयार करें । इसे पीनेसे पोते हुए बोतल में वा शीशी में रख कर बालुका यन्त्रमें पाक देहको दूढ़ता तथा वल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती , करे। दो पहरके बाद उसे निकाल कर अदरकके रसमें | है। सान्निपातिक ज्वरमें तथा विसूचिका रोगमें हिमाङ्ग- फिरसे घोटनेसे मृतसञ्जीवनरस तैयार होता है। के समय इस 'मृतसञ्जीवनी' का बार बार प्रयोग किया "ओं यघोरेभ्यश्च धोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यश्च सर्वतः सर्वेभ्यो | जा सकता है। . , - नमोऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः।" .इस अघोर मन्त्रसे रसरक्षा और पूजा करके दो पहर तक आंच दे। दूसरे दिन ठंढा हो मृतसञ्जावनारस ( स० पु०) रसौषधविशष । प्रस्तुत- जाने पर उसे फिरले.अदरक के रसमें मल कर सुखा ले।। प्रणाली-विप १ भाग, सोहागा २ भोग, . जायफल ३

या.३ रत्ती प्रति दिन अदरक रसमें सेवन करनेसे | भाग, तांबा ४ भाग इन्हें, सोंठके काढ़े में खल करके

दो माशेको गोली बनावे। इसका अनुपान सोंठ, पीपल, .. कठिन रोग आरोग्य होता है। ..... . मृतसञ्जीवनी (सं० स्त्री०.). मृतं. मृतशस्यं जीवयतीति | मिर्च, सैन्धवलवण, चिता वा अदरकका रस है । रोगोके शरीरमें कपूर और चन्दन लगाना तथा कांसेके वरतनमें जोव-युद्, ङीप च । १ गोरक्षदुग्धा; दुधिया घास।२ करके जलसेक करना उचित है। पथ्य शालिधान्यको मृतजीवनार्थिका विद्या। इस विद्यासे मृतव्यक्ति जीवन अन्न, मट्ठा और ईखका रस है। इसका सेवन करनेसे - लाभ, कर सकता है. इसीसे इसको मृतसञ्जीवनी कहते महाघोर सान्निपातिक ज्वर, त्रिदोषज्वर, विषमज्वर, हैं। दैत्यगुरु शुक्राचार्य इस विद्यामें पारदर्शी थे। देव- आमवात, वातशूल, गुल्म, प्लीहा, जलोदर, शोत, दाह, ताओंने यह विद्या.जाननेके लिये कचको शुक्रके पास ज्वर, अग्निमान्द्य और वातरोग नष्ट होता है। भेजा था। कच बड़ी आसानीसे यह विद्या सीख कर दूसरा तरीका-पारा एक भाग और गन्धक दो देवलोकको लौटा। पीछे इन्द्रादि देवताओंने कवसे यह