पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२६४

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मृतिका २६१ वास्तुशास्त्र में घर बनाने के लिये ब्राह्मणके लिये उत्तर- स्थान हिरन, भिन्न, दग्ध, कण्टकयुक्त, रुक्ष, कुटिल, वृक्ष. प्लव, क्षत्रियके लिये पूर्वनिम्न, वैश्यके लिये दक्षिण निम्न समन्वित, करपक्षियुक्त, निन्द्यसंज्ञित, शुष्क, शीर्ण और और शूद्रके लिये पश्चिम निम्न भूमि ही प्रशस्त कही| वहुपर्णरूप वर्मसमन्वित वृक्षोंसे समाच्छादित है ऐसा गई है। ब्राह्मण सभी स्थानोंमें वास कर सकते हैं, स्थान कृषि और उद्यानके लिये अशुभप्रद है। किन्तु शेष तीन वर्गों को अपने अपने निर्दिष्ट शुभस्थानमें जहां चतुष्पध, श्मशान सदृश शून्यगृहयुक्त, अमनोज्ञ, ही वास करना चाहिये । यदि घरके आस पास वल्मोक ! विपम, सर्वदा ऊपर (क्षार मृत्तिकायुक्त) अवस्कर, अङ्गार, तथा बहुतसे गड्ढे हों, तो वह स्थान विशेष विपजनक । नृकपाल, भस्म, तुप और शुष्क तृण द्वारा व्याप्त तथा है। घरके मध्य एक हाथ गोल गड्ढा खोद कर प्रबजित, नग्न, नापित, धूर्त, रिपु, बंधन, सौनिक, श्वपच, उसी मटटीसे पीछे उसे भर दे। यदि मिटटी कम शठ, यति और पीड़ित लोकसमन्वित अथवा आयुध हो जाय, तो वह स्थान अनिष्टकर समझा जाता है, और मद्यविक्रययुक्त स्थान विशेप शुभकर नहीं है। अतः वहां वास करना उचित नहीं । गर्तमें जो सफेद, कृपकगण उर्वरताशक्ति बढ़ाने के लिये महोगें तरह लाल, पीली और काली मिट्टी दिखाई देती है वह यथा| तरहकी खाद देते हैं। धान आदि अनाज उपनाने क्रम ब्राह्मणादि चारों वर्णके लिये शुभप्रद है। घृत, तथा वृक्षादि रोपने के लिये उपरोक्त जो सव स्थान रक्त, अन्न और मद्यतुल्य गन्धवती भूमि ब्राह्मणादि चारों, खभावतः उवरा है वहां खाद देनेकी जरूरत नहीं पड़ती। वर्णके लिये मङ्गलकारक ; कुश, शर, दूर्वा और काश | एकमात्र अनुर्वर जमीनने ही खोद दी जाती है। कभी विशिष्ट तथा मधुर, कषाय, अम्ल और फाड़ई खादवाली कमो उर्वरा जमीनमे भी इसलिये खाद दी जाती है भूमि भी ब्राह्मणादि चारों वर्गों के लिये हितकर है। । जिससे अनाज खूब उत्पन्न हो । सड़ी मछली वा मांस, उपरोक्त विवरण पढ़नेसे स्पष्ट अनुमान होता है, कि सरसों, रेड़ी, तीसो आदिकी भूसी, गोवर और विष्ठा पूर्ववत्ती हिन्दू स्थपतिगण मिट्टीके वर्ण, रस और उसके | आदिको मिट्टीमें सड़ा कर पीछे खेतमें बनेसे उर्वराशक्ति ऊपर उत्पन्न उद्भिजादिकी प्रकृति निर्णय कर मिट्टोकी बढ़ती है। तहकी दृढ़ता और गृहनिर्माणको उपयोगिता निर्वाचन जलाशयके प्रान्तभागमें वाटिका लगाना उचित है। कर लेते थे। वालुकाप्रधान ऊपर भूमिमे घर नहीं | मुलायम मिट्टोमे वृक्ष हरे भरे रहते हैं। ऐसी मिट्टोमें बनाना चाहिये। जिस स्थानको मट्टो जलीय रससिक्त | यदि तिल वोया जाय तो काफी उपजता है। कटहल वृक्ष- नहीं अथवा जिस स्थानके समीप जलाशयादि वा के काण्डमें गोवर लेप कर उसे लगाया जाता है। भूगर्भस्थ जलवाहिका प्रणाली बहुत नीचे वहती है, मिट्टोमे कोटादिकं रहनेके कारण घृक्षादि नष्ट हो वहां भी घर वनाना उचित नही। वास्तु शब्द देखो। जाते है। अतः कोटोले वचानेके लिये मिट्टीमें अथवा कृषिकार्य ( Agriculture) चलाने अथवा उपवन | वृक्षके तलमें नाना प्रकारके पदार्थ दिये जाते हैं। घृत, लगानेके लिये मिट्टी के बलावलका अवश्य विचार करना उशोर, तिल, मधु, विडङ्ग, क्षीर और गोवर द्वारा वृक्ष- चाहिये। प्रस्फुटित पुष्पभाराभरणभूपित, प्रचुर फल मूलको लेप कर उनका संक्रमण और विरोपन करे। शालिनी, सुस्निग्ध त्वक् द्वारा आच्छन्न, असत् पक्षि- वकरे और मेढ़की विष्ठाका चूर्ण २ आढ़क (४ सेर= परिशून्य और प्रशस्त संज्ञाप्राप्त सतेज तरुराजिकी छाया | १ आढ़क ), तिल १ माढ़क, सत्तू १ प्रस्थ (आढ़कका द्वारा जो भूमि समतल है, जहां देव, ऋषि, द्विज, साधु चतुर्थाश), जल १ द्रोण और उतना ही गोमांस ; इन्हें और सिद्धगण वास करते हैं ; जो सत् पुष्ष और शस्य सात रात वासी करके वृक्षलता गुल्मादिमें सेक देनेसे परिथ्याप्त, स्वादिष्ट और निर्मल जलपूर्ण, आहादयुक्त तथा फलपुष्पकी वृद्धि होती है। कुलथी, कलाय, मूंग, तिल सुन्दर हरिद्वर्ण नवतृण द्वारा परिशोभित है ऐसी उर्वर और जौके सत्तुको जमीनमें देनेसे भी उर्वरा शक्ति बढ़ती भूमि ही जनसाधारणके लिये प्रिय और शुभकर है। जो है। वृक्ष शब्द देखो। Vol. xVIII 66