पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२७१

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मृत्यू करता है, और कौन मरता है ? इस प्रश्नको हल करनेमें | उसकी मृत्यु भी नहीं। नितान्त सूक्ष्म और निरवयव जन्म, जीवन और मृत्यु ये तीनों ही बात कहनी पड़ती, इन्द्रियोंकी भी मृत्यु नहीं होती। है। ऋपिमात्रका ही कहना है, 'नायं हन्ति न हन्यते" आत्मा | आत्मा मरती नहीं, इन्द्रिय भी नहीं मरती, यह किसीको नहीं मारतो और न स्वयं ही मरती सिद्धान्त यदि सत्य है, तो 'अमुक व्यक्ति मरा है' 'अमुक है। मृत्यु नामक कोई खतन्त्र पदार्थ नहीं है। मरेगा' ऐसा न कह कर देह मरो है, देह मरेगो, ऐसा ही तब फिर यह मृत्यु शब्द किसके ऊपर लागू है ? कैसी कहना उचित था, लेकिन ऐसा तो कोई कहता नहीं, घटनाके ऊपर मृत्यु शब्दका व्यवहार होता है ? इस | नहीं कहनेका कारण क्या ? थोड़ा विचार करनेसे इसका विषय पर थोड़ा विचार करना परमावश्यक है। कुछ कारण समझमें आयेगा। हम लोग इस दृश्यमान संघात घास, लकड़ी और रस्सी आदिके मेलसे घर तथा जल, अर्थात् देह, इन्द्रिय, प्राण, मन इन सबके सम्मिलनभाव- वायु और मिट्टोके मेलसे घटादि वने । फिर क्षिति, जल और का विनाश देख कर ही मृत्यु शब्दका प्रयोग करते हैं। वीजके एकत्र होनेसे अंकुर उत्पन्न हुआ, उससे शाखा | किन्तु प्राणसंयोगका ध्वंस ही उक्त शब्दका प्रधान लक्ष्य पल्लवादि निकले, अव कहा गया, वृक्ष उत्पन्न हुआ है। है। प्राण-व्यापारकी निवृत्ति हुए विना अन्य सम्बन्धको कुछ दिन बाद उन सवोंके अवयव विश्लिए हुए अथवा निवृत्ति नहीं होती। उन सब अवयवोंका संयोग विध्वस्त हो गया। क्या जीवन और मरण वा मृत्यु जीव और मृ धातुसे हो इस समय यह नहीं कहा जाता कि घर गिर पड़ा, घड़ा निकले हैं। इसके धातव अर्थकी पर्यालोचना करनेसे फूट गया और वृक्ष मर गया है ? अभी थोड़ा गौर कर | उक्त अर्थका ही वोध होता है। जीव धातुका अर्थ प्राण- देखनेसे मालूम होगा, कि कैसी घटना पर अर्थात् कैसी धारण और मृ-धातुका अर्थ प्राणपरित्याग है। इससे अवस्थामें हम लोग भग्न, ध्वंस और मृत्यु शब्दका व्यव मालूम होता है, कि प्राण जव तक देहेन्द्रियसंघातमें मिला हार करते हैं। अवयवका शैथिल्य, विकार अथवा रहता है तब ही तक उसका जीवन है, विच्छेद होनेसे संयोगध्वंश, इसीके ऊपर उक्त शब्दका व्यवहार किया हो मृत्यु होती है। अतएव यह कहना पड़ेगा, कि मरण गया है। अब उसे निजींव पदार्थसे उठा कर सजीव | में आत्माका विनाश नहीं होता, केवल देहके साथ पदार्थके ऊपर लानेसे मालूम पड़ेगा, जीवन्तपदार्थका | उसका विच्छेद हो जाता है। मैं मरा और अमुक मरा मरण क्या है ? जन्ममरण और कुछ भी नहीं है, अव इसका अर्थ सौपचारिक है। आत्माके अध्यास रहनेसे यवका अपूर्व संयोगभाव जन्म और उसका वियोगभाव ही देहादि संघात अहंप्रत्ययगम्य होता है तथा उसी मृत्यु है। कारण ऐसा औपचारिक प्रयोग हुआ करता है। किन्तु प्राणसंयोगका ध्वंस ही यथार्थ मरण है। मरण और आत्यन्तिक विस्मृति दोनों समान हैं। मरण शब्द देखो। जिन कारणोंने जीवको देह आवद्ध रखा था उन कारणों जिनकी मृत्यु अवश्यम्भावी है, उनमें निम्नोक्त लक्षण या संयोगविशेषके विनष्ट होनेसे अत्यन्त विस्मरण वा उपस्थित होते हैं। ये सब लक्षण दिखाई देनेसे जानना महाविस्मरण नामक मृत्यु होती है। मृत्यु होने पर चाहिये कि वह अव अधिक देर नहीं ठहर सकता। ये देहादिमें अन्य प्रकारका विकार उपस्थित होता है । अत- लक्षण सुश्रुतमें इस प्रकार कहे गये हैं,-- एव अवयवोंके अपूर्व संयोगका नाम जन्म और वियोग- __शरीरका जो अङ्ग खभावतः जैसा है, उसकी अन्यथा विशेषका नाम मृत्यु है। होनेसे मृत्युका लक्षण जानना चाहिये। जैसे, शुक्लवर्ण- जन्ममृत्युके लक्षणसे यही मालूम होता है । "अपूर्वदेहे-/ को कृष्णता, कृष्णवर्णकी शुक्लता, रक्त आदि वर्णका कुछ न्द्रियादिसंघातविशेपेण संयोगश्च वियोगश्च ।" जिसके अव- गौर वर्ण होना, स्थिरकी अस्थिरता, अस्थिरकी स्थिरता, यव हैं उसीको मृत्यु होती है और जिसके अवयव नहीं, स्थूलकी कृशता, कशकी स्थूलता, दीर्घका ह्रखत्व वा