पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२७३

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२७० मृत्यु पिशाच और राक्षसादि आते हैं तथा रोगीको मृत्यु - कामना करके उसको सभी औषधोंके वीर्यको नष्ट कर इन सब अरिष्टलक्षणोंसे मृत्युका निश्चय किया जा सकता है। इसके अलावा किार रोगमें कैसा लक्षण डालते हैं। इसी कारण जिसकी आयुशेष हो चली है | होनेसे मत्यु होती है उसका विषय भी सुश्रुतमें सवि- उसका कोई भी प्रतिकार सफल नहीं होता। स्तर लिखा है। शरीर वा स्वभावमें किसी प्रकारको विकृति दिगई फिर पुराणादि शास्त्रोंमें भी मृत्युके पूर्वलक्षणका देनेसे ही उसे सामान्यतः अरिएलक्षण कहते हैं। विषय देखा जाता है। इस अरिष्टलक्षण द्वारा भी मृत्युका विषय स्थिर किया | "अरिष्टानि महाराज ! शृणु बक्ष्यामि तानि ते। जाता है। येषामालोकनान्मृत्यु निजं जानाति योगयित् ॥" ____ जो व्यक्ति प्राध्य शब्दको अरण्यके समान वा अरण्य (मार्कण्डेयपु० ४३ अ.) शब्दको प्राग्यके समान अनुमान करता है, जो शत्रकी ___ यदि सभी अरिष्ट लक्षण मालूम हो जाय, तो योग- बात पर हृष्ट और मित्रकी वात एर कुपित होता है, वित् अपनी अपनी मृत्युका विषय जान सकते हैं। ये अथवा मित्रकी बात सुनना नहीं चाहता उसको मृत्यु सव मृत्युलक्षण विस्तार हो जानेके भयसे नहीं लिखे निकट है। जो व्यक्ति गरमको ठंढा वा ठंढेको गरम गये। मार्कण्डेय पुराणके ४३ वें अध्यायमें विशेष विवरण समझ कर ग्रहण करता है वा शीतप्रयुक्त रोमाञ्च हो कर लिखा है। भी शरीरको वेदनासे छटपटाता है, शरीर अत्यन्त उष्ण विष्णुपुराणमें लिखा है, कि कल्पान्तरमें भयसे माया- रहने पर भी शीतयुक्त और कम्पित होता है, प्रहार वा गर्भसे मृत्युको उत्पत्ति हुई । इसी मृत्युसे व्याधि, अडच्छेद करने पर भी जो उसका तनिक भी अनुभव जरा, शोक, तृष्णा और क्रोधका जन्म हुआ है। नहीं करता, जिसका शरीर पांशुविकीर्णकी तरह दिखाई | "हिंसा भार्या त्वधर्मस्य तयो से तथान्तम् । देता है, जिसके शरीरका वर्ण पलट जाता है, स्नान कन्या च निकृतिस्ताभ्यां भयं नरकमेव च ॥ कराने वा चन्दन लेपनेसे जिसके शरीर पर नीली मक्खी भाया च वेदना चैव मिथुनं त्विदमेतयो। वैठती हैं, सभी प्रकारका खाया हुआ रस क्रमशः जिसके भयाज्जशेऽथ वै माया मृत्य' भुतापहारिणम् ॥" दोषको बढ़ाता है अथवा मिथ्या आहार द्वारा जिसकी अस्यापत्यादि- दोषवृद्धि और अग्निमान्य होता है, जो कोई रस नहीं "मृत्योोधिजराशोकतृष्णा क्रोधाश्च जज्ञिरे । जान सकता, सुगन्ध वा दुर्गन्धका जिसे कुछ भी अनुभव दुःखोत्तराः स्मृता येते सर्वे चाधर्म लक्षणाः।" नहीं; शीत, उष्ण, हिम आदि काल, अवस्था वा दिक् अथव नैषां भार्यास्ति पुत्रो वा स ते हयुद्ध रेतसः ॥" 'अन्य कोई भाव विपरीत भावमें ग्रहण करता है, दिनमें मार्कण्डेयपुराणके दुःसहानुशासन नामक अध्यायमें जो व्यक्ति प्रह नक्षत्रादिको प्रज्वलित-सा, रातको ज्वलंत मृत्युकी उत्पत्तिका विषय इस प्रकार लिखा है, जिसने सूर्य वा दिनको चन्द्रकिरण, मेघशून्य आकाश, इन्द्रधनु जन्म लिया है, मृत्यु उसकी देहके साथ उत्पन्न हुई है, वा निर्मल आकाशमें सविद्युत् मेघ, आकाशमण्डल आज हो वा सौ वर्षके वाद, पर मृत्यु उसकी अवश्य- म्भावी है। अट्टालिका वा विमानयानसे पूर्ण, मेदिनीमण्डलको धूम, "म त्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते । नीहार वा वस्त्रके द्वारा आवृत-सा तथा सभी लोगोंको अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्यु प्राणिनां ध्र वम् ॥" प्रदीप्त अथवा जलप्लावितकी तरह देखता है अथवा जो (भागवत १०१ १०) व्यक्ति सनक्षत्र अरुन्धती ध्रुव नक्षत्र वा आकाशगङ्गाको मृत्युके बाद शोक करना बुद्धिमानोंका कर्तव्य नहीं तथा अपनी छायाको उष्ण जलमें वा ज्योत्स्नाके आदर्श- में नहीं देख पाता अथवा जिसे वह छाया अङ्गहीन पा है। क्योंकि, को लाख प्रयत्न करने पर भी लौट नहीं' विकृत दिखाई देती है उसकी मृत्यु निकटवत्ती है। सकता, जिसकी अन्यथा करना बिलकुल असम्भव है (सुश्रुत सूत्रस्था० २६-३२ ब०) उसके लिये शोक प्रकट करनेसे लाभ क्या?