पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२८३

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मेखलकन्यका-मेघ "यावान् कुण्डस्य विस्तारः खनन तावदिष्यते। त्वान्, वारिद, अम्बुभृत, धन, जीमूत, मुदिर, जलमुच , हस्तके मेखलास्तिस्रो वेदामिनयनांगुलाः। धूमयोनि। (अमर ) अभ्र, पयोधर, अम्भोधर, व्योम- कुण्डे द्विहस्त ता ज्ञेया रसवेदगुणांगुलाः। धूम, खनाखन, वायुदारु, नभश्चर, कन्धर, कन्ध, नारद, चतुर्हस्ते तु कुछ ता वसुतर्कयुगांगुलाः॥" गगनध्वज, वारिमुच चामुक, वनमुच अब्द, पर्जन्य, (तिथितत्वमें पञ्चरा) नभोगज, मदयित्नु, कद, कन्द, .वेड़ , गदामर, खतमाल, १२ यज्ञवेटनसूत्र । १३ कपड़े का टुकड़ा जो साधु लोग वातरथ, श्वेतनोल, नाग, जलकरङ्क, पेचक, मेक, दर्दुर, गलेमें डाले रहते हैं, कफनी। अम्बुद, तोयद, अधुवाह; पाथोद, गदाम्बर, गाडध, वारि- मेखलकन्यका (सं० स्त्रो०) मेखलस्य मेखलोपलक्षितस्य | मसि। (त्रिका०) कन्यकेव प्रसूता । नमदानदो। वैदिक पर्याय-अद्रि, प्रावा, गोत, वल, अश्न, पुरु- मेखलापद (सक्लो०) नितम्वी, मध्यभाग। भोजा, बलिशान, अश्मा, पर्वत, गिरि, वज, चरु, चराह, मेखलाल ( स० वि०) १ मेखलालकृत, जो मेखला पहने शम्वर, रोहिण; रैवत, फलिग, उपर, उपल, चमस, अहि, हो । (पु०) २ शिव, महादेव । अभ्र, क्लाहक, मेघ, दूति, ओदन, पन्धि, वृत्त, असुर मेखलावत् (स' त्रि०) मेखलायुक्त, जिसमे मेतला हो। और कोश। (वेदनिघण्टु १।१०) मेखलावन्ध (सं० क्ली० ) १ मेखला पहननेको क्रिया. ____ आकाशमें जो हम लोग कृष्ण, श्वेत आदि वर्णकी विशेष । २ मखला बन्धन । वायवीय जलराशिकी रेखा वाष्पाकारमे चलती हुई देखते मेखलाविन् (सं० त्रि.), मेखला अस्त्यस्येति मेखला हैं उसीका नाम मेघ (Cloud) है । पर्वतके ऊपर कुहेसे. मतुप मस्य वा मेखलांधारी, मेखला पहननेवाला। की तरह गहरा अन्धकार दिखाई देता है वह मेघका रूपा- मेखलिक (सं०नि०) मेखलाशोभी। न्तरमात है। वह आकाशमें सश्चित धनीभूत जल- मेखलिन् (स0पु0)१ मेखलाधारी ब्रह्मचारी | २ शिव, वापसे बहुत कुछ सरल होता है। वह तरल कुहरेकी महादेव। जैसी वापराशि पीछे घनीभूत हो कर स्थानीय शीलता मेखली ( हिं० स्त्री०) १ एक प्रकारका पहनाया । इसे के कारण अपने गर्भस्थ उत्तापको नष्ट कर शिशिर विन्दु- गलेमें डालनेसे पेट और पीठ ढकी रहती है और दोनों की तरह वर्षा करती है। हाथ खुले रहते हैं । यह देखने तिकोना और ऊपर मेध और कुहेसे (Fog) की उत्पत्ति प्रायः एक-सी है। चौड़ा तथा नीचे नुकीला होता है। २ कटिबन्ध, कर- प्रभेद इतना ही है, कि मेध आकाशमें चलता है और धनी। कुहेसा पृथ्वी पर। सूर्य देवकी प्रखर किरण जव समुद्र मेखवा (फा० पु० ) सवारी ले कर चलते समय जब राह पर पड़ती है, तब उसको जलराशि वाष्पाकारमें उड़ में मागे खूटा मिलता है; तव उससे बचने के लिये अगला | कर वायुगतिके अनुसार सञ्चालित होती है । वह सूक्ष्म फहार यह शब्द वोलता है। जालीय वाष्प (Aqueous Papour ) शीतल वायुके मेगजीन (अ० तु.) १ वह स्थान जहां सेनाके लिये वारूद | चापसे ऊपर उठता और सूक्ष्मतम तथा परिशुष्क वायुस्तरमें रखी जाती है, वारूदखाना। २ सामयिक पत्र विशेषतः । सञ्चित हो जाता है । इस प्रकार वार धार सञ्चित होनेके मासिक पत्र जिसमें लेख छपते हैं। कारण वह वापराशि आकाशमें नीली वा काली (Visi- मेघ (सं० पु०) मेहतीति मिह-अच् (न्यक्वादीनाञ्च पा | ble Vapours) दिखाई देती है। कभी कभी सूर्यको ५३५३ ) इति कुत्वम् । १ मुस्तक, मोथा । २ तण्डु- किरण पड़नेके कारण वह तुषार-सा प्रतीत होता है। लीय शाक। ३ राक्षस । ४ आकाशमें घनीभूत जल- पहले कहा जा चुका है, कि एकमात्र अग्नि वा वाप्य जिससे वर्षा होती है, वादल। पर्याय -अपभ्र, उत्ताप ही मेघ और कुहेसेकी उत्पत्तिका कारण है। वारिवाह, स्तनचित्नु, वलाहक, धाराधर, जलधर, तड्-ि' कहीं कहीं आग जलानेसे हम लोग देखते हैं, कि चारों