पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२८५

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२८२ प्रेध संहिताके १२१८११८ तथा अथर्वेदके ४।१५।७-८ मन्तमें। यह विद्यु दुगुणविहीन, जलधारावलम्बी महाकाय और चायुकत्तक मेवकी उत्पत्ति तथा वृष्टिपातका उल्लेख है। मूदुवों हो कर कोस वा आध कोस परिमित स्थानमें इन विश्वरक्षक मेघोंकी किस प्रकार उत्पत्ति हुई है अथवा | तथा पर्वतके सामने वा वीचके वनप्रदेशमें जल बरसाता किस समय ये गर्भधारण कर कितने दिनोंके बाद अल है। प्रजाओंकी मङ्गलकामना करके देवराज इन्द्रने जिन रोशिकी वर्षा करते हैं, प्राचीन संस्कृत पुराणादि शास्त्रों सव मेघों द्वारा पर्वतोंके पंख कटवा लिये थे उन्हें पक्षज और ज्योतिपनन्थोंमें इसका उल्लेख देखने में आता है।। मेघ कहते हैं। ( ब्रह्माण्डपुराण ५८ अ०) यूरोपीय वैज्ञानिकोंने समुद्रजलसे वाष्पाकारमें ऊपर उठी कूर्मपुराणमें त्रेतायुगके समय मेघोत्पत्तिका जो हुई जलराशिके रूपान्तरको ही जो मेघकी उत्पत्तिका वर्णन आया है उसमें भी वही आभास देखने में आता कारण बतलाया है, भारतीय प्राचीन ऋपियोंको बहुत है। जैसा- पहलेसे ही वह वैज्ञानिकतत्त्व मालुम था। नीचे उसका "अपां सिद्ध प्रतिगते तदा मेघाम्बुना तु वै। संक्षिप्त विवरण दिया जाता है। मेघेभ्यः स्तनयित्नुभ्यः प्रवृत्तं वृष्टिसजनम् ॥" ब्रह्माण्डपुराणमें मेधका जो उत्पत्ति-विवरण दिया। (कूर्म पु० रू.२६) गया है वह ठीक वैज्ञानिक मतके जैसा है। जैसे- त्रेतायुगके आरम्भमें मेघोंसे ही जल परसता था। "तेजो हि सर्वभूतेभ्य आदने रश्मिभिजलं। उस जलके पृथिवी पर स्पश होते ही प्राणियों के उपयोगी समुद्रात्त्वम्भसा योगातू रश्मयः प्रवहन्त्यपः॥ वृक्षादि उत्पन्न होते थे जिनसे उनके स्वास्थ्यमें बहुत ततोऽयनवशात् काले परिवृत्तो दिवाकरः। लाभ पहुंचता था। (कूर्म पु० सा२६) नियच्छति पयो मेघे शुवल्लाशुक्लैगभस्तिभिः ॥ प्रलयकालीन मधप्रसंगमें जो विवरण दिया गया अभ्रस्थाः प्रपतन्त्यापो वायु ना समुदीरिताः । है उससे मालूम होता है कि संसारध्वंसके लिये उप- सर्वभूतार्थहितार्थाय वायूभृताः समन्ततः॥ यक्त समयमें मेघोंकी सृष्टि होती थी। वे सव मेघ ततो वर्पति सोऽम्भासि सर्वभूतविवृद्धये। विभिन्न वर्णके होते थे। कोई मेघ नील कमलके जैसा, वायव्य स्तनितचव विद्य दमिसम प्रभम् ॥ कोई कुसुम पुष्पके जैसा, कोई धूम्रवर्ण सा, कोई पोला, मसानुमिहेत्यातो मघत्व' व्यलयन्ति च । कोई लाल, कोई शङ्ख और कुन्दके जैसा सफेद, कोई भ्रमिष्यन्ति यथा चापस्तदन्तं कवयो विदुः ।" अञ्जनके जैसा काला और मैनसिलके जैसा लाल, (ब्रह्माण्डपु०) कोई कपोत वर्णके जैसा, कोई रुद्राद, कोई कद्रूर तेज अपनी ज्योति द्वारा सभी भूतोंसे उनका जल वर्णविशिष्ट, कोई वीरवधूटीके जैसा और कोई पीला भाग खोचता है तथा सूर्यदेव भी अपने तेज प्रभाव होता था। वे सब मेघ पर्वताकार वा गजयूथाकार समुद्रसे जलीय वाष्प ग्रहण कर शुक्ला-शुक्लकिरण द्वारा भयङ्कर रूप धारण कर घोर शब्द करते हुए आकाशको उसे मेघोंमें प्रदान करते हैं। वह मेघ वाय गुजा देते थे। अनन्तर वे भीषण मेघ प्रभूत परिमाणमें द्वारा चालित और प्राणियांकी भलाईके लिये वारिवर्पण कर सभी जागतिक अमडाल और अग्नितेजको चारों ओर विक्षिप्त हो जल वरसाता है तथा दूर करते थे। इस प्रकार महाजलप्रपात द्वारा अग्निके उसीसे सभी प्राणियोंकी परिपुष्टि होती है। वे सव मेध नाश हो जानेसे साद्रिद्वीपा पृथ्वी सौ वर्ष तक जलमें अग्निज, ब्रह्मज और पक्षजभेदसे तीन प्रकारके हैं। मेघा- डुबी रहती थी। ( कूर्मपु० उपवि० ४३ अ०) च्छन्न दिनकी वायुसे जिन मेघोंकी उत्पत्ति होती है, वे ज्योतिस्तत्त्वमें आवतं, सन्दर्ता, पुष्कर और द्रोण महिष, बराह और मत्त मातङ्गका रूप धारण कर पृथ्वी नामक चार प्रकारके मेघोंका उल्लेख है । इनमें से आवर्त- पर विचरण और कोड़ा करते हैं, वही मेघ अग्निज नामसे| मेघ निर्जल, सम्वर्तमेध बहुजलविशिष्ट, पुष्कर दुष्करजल प्रसिद्ध हैं। ब्रह्मज मेघ ब्रह्मनिश्वाससे उत्पन्न होता है। और द्रोण शस्यपूरक होता है।