पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मेघ कार्तिक शुक्लपक्षमें जल वरसता है। पूरवका मेघ पश्चिम ; शुभप्रद और बहुत दिन तक पालनेवाला होता है। विविध और पश्चिमका पूरव जाता है। शेष दिशाओमें वायुका भी उत्पातसे गर्भ नष्ट होता है । चन्द्रमा जव इन नक्षत्रोंमें-से इसी प्रकार विपर्याय होता है । ईशान कोण और पूरब- किसी एकमें अवस्थान करते हैं तव अगहनसे पैशाख की हवा आकाशको विमल तथा आनन्दप्रद बनाती और तक ६ महीनों में यथाक्रम ८,६, १६, २४, २०, और ३ मृदुजल वरसाती है; चन्द्रमा और सूर्य स्निग्ध होते तथा दिन तक लगातार वृष्टि होती है। क राह सयुक्त होने बड़े शुक्लमण्डलसे घिर जाते हैं। आकाश यदि स्थूल, पर गर्भ ओले, अशनि तथा मछलीकी वृष्टि करता है और बहुल तथा स्निग्ध मेधयुक्त या घनसूची, क्षरक और । चन्द्रमा अथवा सूर्य शुभग्रह सयुक्त या शुभग्रहोंसे घिर लोहित मेघय क्त हो अथवा काकाण्ड या मयूरचन्द्रकका जाय तो मेघ खूब बरसता है। गर्भके समय यदि रंग धारण करे तो नक्षत्र और चन्द्रमाकी विमल ज्योति । अकारण अतिवृष्टि हो तो गर्भ नष्ट हो जाता है। होती है। ईशान तथा पूरव दिशामें मेघ वर्तमान हों और ' द्रोणके आठवें भागसे अधिक वर्षा होने पर गर्भ नष्ट इन्द्रधनुप एवं दामिनीके दमकसे सुशोभित और गंभीर होता है। पुणगर्भ यदि ग्रहोपघातादिके कारण न वरसे गर्जन करते हों तथा पशु पक्षी शान्त शब्द करें तो संध्या । तो आत्मीय गर्भ प्रसवकालमें ओलोंके साथ जल वरसाता मनाहारिणी हो जाती है। है। जिस प्रकार पयविनियोंका दृध अधिक दिन अगहन और पूसमें मेघ सध्याको लाली तथा मण्डल सक्षित रहनेके कारण कठिन हो जाता है उसी प्रकार धारण करें तथा अगहनमें जाड़ा खूब पड़े और पूसमें वर्फ बहुत दिन वोतने पर जल कठिन हो जाता है। जो गर्भ अधिक गिरे, तो मेधका गर्भ पुष्ट नहीं होता । माघमें यदि पांच निमित्त द्वारा पुष्ट होता है वह सौ योजन तक प्रवल बायु वहे, चन्द्रमा और सूर्यको किरणें धुंधली दोख | वरसता है। उन निमित्तों से यदि एक एक निमित्तका पड़े तथा खूब जाड़ हो तो मेघयुक्त सूर्यका उगना और | अभाव हो, तो उतनी दूर तक वृष्टि नहीं होती। पञ्चनिमि- इवना अच्छा है। फागुन महोनेमें यदि रूखी और तेज त्तक गर्भ पक द्रोण जल बरसाता है। पवन निमित्तक ३ हवा बहे, मेघ सरस हो, परिवेप असम्पूर्ण हो, सूर्य अग्नि- आढ़क और विद्यु निमित्तक ६ आढ़क जल वर्पण करता के जैसा पिंगल और तान वर्णका हो तो शुभ जानना है। जो गर्भ पवन, सलिल, विद्युत्, गर्जित और मेघ- चाहिये। चैत में गर्भका पवन, मेघ, वृष्टि और परि रूप पञ्चनिमित्तयुप्त है वह प्रचुर जल देता है। यदि वेषयुक्त होना भी शुभ है। वैशाखों मेघ यदि वायु, गर्भकालमें ही अधिक वर्षा हो जाय, तो प्रसवकाल जल, शब्द और विद्य त् युक्त हो तो गर्भ हितकारक होता| अतिक्रान्त होने के बाद केवल जलाकणा वरसती देखो है। मुक्ता, चांदी, तमाल, नीलकमल या अंजनके जैसे | जाती है। (वृहत्संहिता ) वर्णवाले अथवा जलचर प्राणियोंके रूप धारण करनेवाले मेघ-प्रवर्षण । मेघ प्रचुर वृष्टि करते हैं और गर्भ सूर्याको प्रखर किरणोंसे ज्यैष्ठ-पूर्णिमाके वाद यदि पूर्वापाढा नक्षत्र में वृष्टि हो, उत्तप्त और मन्द वायुयुक्त हो तो मेघ मानो क्रोधित हो तो जलके परिमाण और शुभाशुभके सम्बन्धमें विद्वानोंने मूसलधार वृष्टि करते हैं। अशनि, उरका, पांशु पात ऐसा कहा है ; हाथ भर गहरा गड्ढा बना कर जलका दिगदाह, भूमिकम्प, गन्ध नगर, कोलक, केतु, प्रहयुद्ध, परिमाण स्थिर करना होता है। यदि वह वर्षाके जलसे निर्घात, रुधिरादि वृष्टि-विकृति, परिघ, इन्द्रधनुप और भर जावे, तो एक आढ़क जल हुआ है ऐसा जानना राहु-दर्शन इन सब उत्पातोंसे तथा दूसरे त्रिविध होगा। कोई कोई कहते हैं, कि जहां तक नजर दौड़ाई उत्पातोंसे गर्भ नष्ट होता है। सभी ऋतुओंकी अपेक्षा | जाय, वहाँ तक यदि जल ही जल दिखाई दे, तो उसे पूर्वाभाद्रपद, उत्तरभाद्रपद, पूर्वापाढ़ा, उत्तरापाढ़ा तथा अतिवृष्टि कहते हैं । फिर किसी किसीके मतानुसार रोहिणी नक्षत्र में वर्द्धितगर्भ प्रचुर दृष्टि करता है। शत- दश योजन मण्डल दृष्टिका नाम अतिवृधि है | किन्तु भिषा, अश्लेषा, आद्रा, स्वाति और मघासयुक्त गर्भ | गर्ग, वशिष्ठ और पराशरका कहना है, कि बारह योजनके Vol. XVII 72