पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/२९५

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२६२ मेघेश्वर-पेच कम निपुण शिवतन्त्रविद् जल देनेवाले आठ मेघोंने। करते थे। यह मन्दिर उन्हांके समयमें बनाया गया था। खाई और फाटकसे युक्त उस प्रासादकी प्रतिष्ठा की मेघेश्वरतीर्थ (सं०क्ली०) रेवा वा नर्मदातीरस्थ तीर्थभेद। तथा मन्त्रयोगसे दान, अर्धा, तप और यशके द्वारा मेघोदक (सं.क्लो० ) मेघस्य उदकं । मेधतोय, बादलका

महादेवको सन्तुष्ट किया । भगवान् देवादिदेवने खयं प्रकर जल ।

हो कर कहा, 'तुम लोग क्या वर मांगते हो, मांगो। यह मेघोदय (सं० पु०) मेघस्य उदयः । मेघका उदय, वादल- सुन कर मेघगण अत्यन्त प्रसन्न हो बोले 'भगवन् ! | का आरम्भ'। यदि आप प्रसन्न है, तो यही वर दोजिये जिससे हम मेघोदर (संपु०) मेघस्येव उदरमस्य । अपिता। लोग आपको इस प्रासादमें हमेशा देख पावें। मेघोंको मेध्य (संत्रि०) मघभव, बादलसे उत्पन्न । करुणायुक्त वाक्य सुन कर भगवान् शङ्करने कहा, 'मैं तुम | मेङ्गनाथ (सं० क्ली० ) जातिभेद ! लोगोंके अनुरोधसे अवश्य इस प्रासादमें रहूंगा और मेरा | मेङ्गनाथ-१ गोत गोविन्दटोकाके प्रणेता कमलाकरके नाम 'मेघेश्वर' रहेगा और यह जो तालाव है उसका जल पिता। २एक विख्यात ज्योतिर्विद् । मुहर्तमार्तण्ड. सर्वपाप विनाशक तथा पुण्यप्रद होगा। इस प्रकार वल्लभमें नारायणने इनका उल्लेख किया है। भगवान्का वचन सुन कर मेघगण बड़े प्रसन्न हुए और मेङ्गनाथ भट्ट-मीमांसाविधि भूषणके प्रणेता गोपालभट्टक उन्हें प्रणाम कर खगंको ओर चल दिये। पिता। . एकाम्रपुराण और स्वर्गादि महोदयमें मेघसे मेघेश्वरको मेङ्गनाथसर्वश-रुद्रानुष्ठान पद्धतिके रचयिता । उत्पत्तिका वर्णन होने पर भी वह अति प्राकृत मालूम मेच (स.पु०) एक प्राचीन कवि । होता है। इस मेघेश्वर मन्दिरमें पहले एक बड़ी शिला- मेच (हि.स्त्री०) १ पर्यक, पलंग । २ चैतको दुनी हुई लिपि थी जो अभी अनन्तवासुदेवके मन्दिरमे संलग्न है। खार । उस उत्कीर्ण लिपिसे इस प्रकार जाना जाता है.- मेव-आसामकी एक पहाड़ो जाति । इन्हें लोग मेवो भी . गौतमगोत्रमें पण्डितमान्य द्वारदेव नामक एक राज- कहते हैं। आसामके ग्वालपाड़ा जिलेमें, विशेषतः पुत्रने जन्म लिया। उनसे पण्डितपुङ्गव मूलदेव उत्पन्न | पश्चिममें भूटानद्वारसे ले कर फंकी नदी तक हिमालय हुए। मूलदेवके पुत्र प्रसिद्ध अहिरम, अहिरमके पुत्र । की पहाड़ो तराईमें तथा उत्तर बंगालको मेची नदोके स्वप्नेश्वर और कन्या सुरमा थी। चोड़गड़के लड़के राज- किनारे इनका वास है। कुछ लोगोंको धारणा है कि राजके साथ सुरमा देवोका विवाह हुआ । खप्नेश्वरने ग्वालपाडाका नामकरण मेचपाड़ा और मेचसे हुआ अपने बहनोई वा गङ्गाराजकी ओरसे लड़ कर युद्धक्षेत्र में है। किन्तु मेचपाडाका जमोन्दार अपनेको राजचंशो वीरताका अच्छा परिचय दिया था। उन्होंने ही बहुत रुपये बतलाता है और मच जातिका संस्रव स्वीकार नहीं खर्चा कर इस मेघेश्वर नामक शिवमन्दिरकी प्रतिष्ठा की।। करता। मंच लोगोंके आकारप्रकार, सुन्दर शारीरिक मेघेश्वर-प्रतिष्ठाके बाद उन्होंने सुदर्शन चक्रके साथ विष्णु गठन, सवल अस्थिवर्म आदि देखनेसे अनुमान होता मूर्तिको भी प्रतिष्ठा की थी। है कि ये मगोलियो जातिकी एक शाखा है। आजकल दिनों दिन इन लोगोंकी संख्या घटती जाती है। बहुतोंकी चोड़गङ्गपुत्र राजराज १२वीं सदीके १म भागमें राज्य समझ है कि सरकार द्वारा भूमप्रथाका निवारण और

  • "अथोवाच प्रसन्नात्मा मेघान सर्वान् स ईश्वरः । हलकृषिका प्रवर्तन ही इन लोगोंको अधोगतिका

कारण है। मेघेश्वरो वह चात्र नाम्ना त्रिषु निगद्यते ॥" लिम्बुजातिके उत्पत्ति विवरणीमें इस जातिकी (एकाम्रपु० ३८०) उत्पत्तिके सम्बन्ध लिखा है, कि जगपिताके आदेशसे + Jour. As.S- of Bengal. vol. LX PI.pt lp13- तीन भ्राता खर्गसे वाराणसोमें उतरे। यहांसे थे लोग अपना