पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- मेदोरोहिणो-पेधा • गुरुच और विफ़लाका काढ़ा पीनेसे यह रोग | मेदोवती (सस्त्रो० ) मेदा, चरवी। . .- . जाता रहता है। उस काढ़ के साथ लौहचूर्ण किस्बा मेदोवृद्-ि (.स. स्त्री० ) मे दस वृद्धिः। १: चरवोका

त्रिफलाके काढ़े के साथ मधु खानेसे मेदोरोगकी शान्ति बढ़ना, मोटाई। २ अण्डवृद्धि। . .

होती है। प्रातःकाल मधुके साथ जल अथवा भातका मेद्य ( स० वि०).मेदोभव, चरवीसे उत्पन्न । गरम मांड पीनेसे शरीरकी स्थूलता दूर हो जाती है। मेध ( स० पु० ) मेध्यते वध्यते पश्वादिति मेध-धञ्। त्रिकट ( सोंठ, पीपल और मिर्च ), निफला और निमद १ यज्ञ। २ हवि । ३ यज्ञमें. वलि दिया जानेवाली (चिरायता, मोथा और विडंग ) इन नौ द्रव्योंमें नौ पशु। ४ यज्ञमें दिये जानेवाले पंशुका अवयव । ५ भाग गुग्गुल मिला कर गरम जलके साथ प्रतिदिन | वाजसनेयसंहिताके ३३, ६२ सूत्रके रचयिता. ऋपि। ६ खानेसे मेद, कफ और आमवातसे उत्पन्न रोग कुछ हो । प्रियव्रतके एक पुत्रका. नाम : : 'दिनोंमें शान्त हो जाते हैं। मधुके साथ पीपलका चूर्ण | मेघज (सं० पु०) विष्णु.। खानेसे मेद और कफ रोग दूर होते हैं। धतूरेके पत्तोंका | मेधपति ( स० पु० ) मेधस्य यज्ञस्य पतिः। यक्षपालक । गाढ़ा जलरहित रस स्थलता दूर करनेके लिये उद्वर्त्तन मेधयु (सत्रिक) १ मेदमय, जिसे चरवो हो । २ अर्थात् पैरसे क्रमानुसार ऊपर मस्तक तक मर्दन करावे। वलिष्ठ, बलवान् । ३ संग्रामेच्छु, लड़ाई करनेको जिसकी अड़ स पर्वका रस अथवा विल्वपत्रका रस. शंखचूर्णके इच्छा हो। .:. . ::.:..:. . . साथ शरीरमें लगानेसे देहकी दुर्गन्ध जाती रहती है। मेधस ( स० पु० ) मेधते इति मेध-असुन् । :१ खाय- वाला, तेजपात, रक्तचन्दन, शिरीष, खसको जड़, नाग, म्भुव मनुपुत्र। . . . . केशर और लोध इन सवोंका चूर्ण शरीरमें लगाने अथवा मेधस ( स० पु०:) मुनिविशेष । प्रलेप देनेसे चर्मदोष और पसोनेकी निवृति होतो | मेधसाति (स० स्त्री० ) १ यज्ञका दान या लाभ मेध । है। स्वेद-निवृत्ति के लिये वकुलपन और हरे जलमें पीस प्रियव्रतके एक पुत्रका नाम | .: ... . • कर स्नानसे पहले यथाक्रम उद्वर्शन करे । केवल मेधा (सं० स्त्री०) मेधते संगच्छते अस्यामिति मेध(- पिदमि- हरेका भी इस प्रकार उद्धर्शन करनेसे स्वेदको निवृत्ति दादिभ्यो इङ । पा० ३३।१०४ ) इत्यङ टांप, धारणशक्ति होती है। . . युक्ता धीर्मेधा मेधते संगच्छतेऽस्यां सर्व बहुश्रुतं :विषयी. .:: उक्त रोगमें परावर मेदक्षियकी चेष्टा करनी चाहिये ।। करोति इति वा। धारणावती बुद्धि। जिन्हें मेधा फिर भी अत्यन्त मेदाक्षय न होने पाये इस पर अधिक रहती है, वे प्रायः सभी स्मरण रख सकते हैं। ध्यान रखना आवश्यक है। मेदके क्षय होने पर प्लोहार इसको साधारण वोल वालमें मुखस्थ करने या याद की वृद्धि, सन्धियोंकी शिथिलता, शरीरको रुखाई तथा करनेको शक्ति कहते हैं। मेधा बढ़ानेवाले ये सव हैं:- उसे मेदस्विजीवके मांस खानेकी इच्छा होती है। । सतत अध्ययन, तत्त्वज्ञान कंथा, श्रेष्ठ तन्तशास्त्रावलोकन,

: चवींको विकार किम्वा हास होनेसे प्राणियोंको देहमें

अच्छे ब्राह्मणों और भाचार्य आदिकी सेवाः।::. .....: रोगोंको उत्पत्ति होती है। इसके विकार या. हाससे. ., किसीकोः यदि मेधा नष्ट हो गई तो.. नियमपूर्वक जितना अनिष्ट होता है वैद्यकशास्त्रके चार स्नेहोमल ओषधादिका सेवन करनेसे उसकी मेधा शक्ति फिरसे अन्यतम स्नेहके जैसा इसका व्यवहार होनेसे उतना ही ।' उद्दीप्त हो सकती है। सुश्रुतमें इस सम्बन्धमें यों लिखा नही उपकार भी होता है । शिशुमार, मेष, कूर्म, वराह आदि- की चीका वातरोग मामवात, अपस्मार और उन्माद : है:। उजले सोमराजके फलको धूप सुखा कर आदि रोगोंमें वाह्य प्रयोग करनेसे उपकार होता है। . . चूर कर ले । उस चूर्णको गुड में मथ कर तलके वरतन- मेदोरोहिणो (सं० स्त्री०) जलरोगविशेषः।.. . में डाल दे। पीछे उस वरतनको सात रात धानमें रक्खे। मेदोऽर्बुद (स.पु० ) मेदयुक्त गांठ या गिल्टी जिसमें पश्चात् उसे निकाल कर प्रतिदिन सूर्योदयके समय पोड़ा हो।. २ ओठका एक रोग। .: . उसका पिंड बना कर उपयुक्त परिमाणमें गरम जलके