पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३३७

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३३३ मैयुन वाला-स्त्री मैथुन सद्योयलकारक तथा वृद्धा मैथुन। क्षिणी युवती स्त्रीके साथ मैथुन करना चाहिये । मनुष्य सद्यः प्राणनाशक है। तरुणी स्त्रोके साथ मैथुन करने को चाहिये, कि वह मैथुनामिलापो हो स्नान करनेके बाद से बूढ़ा आदमी भी जवान हो जाता है। जो अपनी चन्दनादि सुगन्ध द्वारा शरीरको लेप कर, वीर्यवर्धक उमरसे अधिक उमरवाली स्त्रीके साथ सम्भोग करता| दृश्य खा कर, उत्कृष्ट वस्त्र पहन कर और पान चवा कर वह युवा होने पर भी जराग्रस्त होता है। पत्नीके प्रति अतिशय अनुरागी, कामभावापन्न और विधिपूर्वक मैथुन करनेसे परमायुको वृद्धि, वाक्य- पुत्राभिलापा हो कर सुखशय्या पर पत्नीके साथ मैथुन की अल्पता, शरीरको पुष्टि, वर्णकी प्रसन्नता और बल की करे। वृद्धि होती है । हेमन्तकालमें नाजोकरण औषधका सेवन | ___ आत्मसंयममें असमर्थ हो रज बला स्त्रोके साथ कर बल और कामवेगके अनुसार यथासम्भव मैथुन संभोग करनेसे दर्शनशक्तिको हात, परमायुकी होनता, करना चाहिये । शिशिर फालमें इच्छाके अनुसार मैथुन नेजको हानि और धर्मका नाश होता है। करना उचित है । वसन्त और शरत्कालमें तीसरे दिन संन्यासिनी, गुरुपत्नी, सगोत्रा तथा वृद्धा स्रोके में तथा वर्षा और ग्रोमकालमें १५ दिनमें मैथुन करना साथ जो मैथुन करता उसकी परमायु घटती है। चाहिये। इस विषयमें जुश्र नने कहा है, कि पण्डितो. | गर्मिणी स्त्रीके साथ मैथुन करनेसे गर्भपीड़ा ; व्याधि को चाहिये, कि वे सभी ऋतुमें तीन दिन और प्रोप्म पीड़िताके साथ करनेसे वलहानि ; होनाङ्गी, मलिना, कालमें पन्द्रह दिन के अन्तर पर स्रो-प्रसङ्ग करें। पभावापन्ना, अकामा और वन्ध्या स्त्रो अथवा खुले गीतकालमें रातको, ग्रीष्मकाल में दिनकी, वसन्तकाल, स्थानमें मैथुन करनेसे शुक्रझोणता और मनको अप्रस- में दोनों वक्त, र वर्षाकालमे बदलीके दिन तथा कता होती है। शरत्कालमें कामका उदय होनेसे हो मैथुन किया जा । ___ ऊपरमें गर्भिणी शब्दका जो उल्लेख किया गया सकता है । शामको, पर्वकं दिन, भोरको, दो पहर रातको,। ऊ उसका तात्पर्य यह कि गर्भसञ्चारके दिनसे ले कर दूसरे दो पहर दिनको कभी भी मैथुन नहीं करना चाहिये । महीनेमे अर्थात् गर्भस्थिरताका निश्चय हो जानेसे अथवा करनेसे भारी अनिष्ट होता है। प्रकाश्य स्थान, अति गर्भसञ्चारकं दिनले ले कर तीसरे महीने में यथोक्त नक्ष- लज्जाजनक स्थान, गुरुजन सनिहित स्थान नथा जिस वादि प्राप्तिके बाद पुसवन संस्कार समाप्त होने पर स्थानसे व्यथाजनक आर्तनादि सुना जाय, वैसा स्थान मथुन नहीं करना चाहिये। क्योंकि व्यासने कहा है, मैथुनकार्य में निषिद्ध है। कि पुसवन समाप्त होने पर खियोंको नदी तट जाना, जो स्थान अत्यन्त निभृत, सुवासित और मृदुमन्द पतिके साथ एक शय्या पर सोना, मृतवत्सा स्त्रोको सुग्नघायु हिल्लोलसे मनोरम है वही स्थान मैथुनके । देखना तथा आमिष भोजन न करना चाहिये। लायक है। अतिरिक्त भोजनके वाद मैथन नहीं करना चाहिये । धातुर, संज्ञाभितचित्त, तृष्णार्स और दुर्गल अवस्था- जो व्यक्ति अधैर्य, क्ष धातं, दुन्यस्ताङ्ग (जिसके हाथ में अथवा मध्याह्न समयमें मैथुन करनेसे शुक्रकी होनता होती और वायु विगड जाती है। पैर अनुपयुक्त भावमें हैं), पिपासित, जिसे मलमूत्रादिका वेग उपस्थित हुआ हो और जो रोगग्रस्त हो उनके लिये ___ व्याधिपीड़िता स्त्रीके साथ मैथुन करनेसे प्लीहा मैथुन विशेष हानिकारक है। और मूर्छादि विविध रोगोंकी उत्पत्ति होती है तथा नियमपूर्वक चाजीकरण औषधका सेवन करनेसे अन्तमें मृत्यु तक भी हो सकती है। सवेरे या दो पहर घोड़े के समान ताकत आ जाती है। उस समय प्रसन्न रातको मैथुन करनेसे वायु और पित्तका प्रकोप बढ़ता वदनसे समान कुलमें उत्पन्ना, रूपगुणसे सम्पन्ना अलं- है। तिर्थक्योनि, अयोनि, अर्थात् कच्ची उमरके कारण कारसे अलंकृता, सच्चरित्रा अथच अत्यन्त फामाभिका- | जो योनि मैथुनके लायक न हो अथवा दुष्ट योनिमें