पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३३८

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मैथुन-मैथुनिन् मैथुन करनेसे उपदंश रोग होता है, वायु विगड़ जातो। कन्याकामी होनेसे अयुग्म दिनमें मैथुन करना उचित है । है तथा शुक्र और सुखका क्षय होता है। तेरहवें दिनसे मैथुन नहीं करना चाहिये । ऋतुके प्रथम दिनमें मथुन करनेसे पुरुपका आयु- ____ मलमूत्र रोक कर अथवा शुक्रधारण कर या चित क्षय होता है। उस समागमसे यदि गर्भ रह जाय तो सो कर मैथुन करनेसे शुक्राश्मरीकी उत्पत्ति हो सकती है। अतएव इस लोक और परलोकमे सुखी रहने के लिये प्रसवकालमें वह गर्भ नष्ट हो जाता है। दूसरे और तीसरे दिन भी मैथुन करनेसे उसी प्रकारका फल लाभ हर एक मनुष्यको चाहिये, कि वह ऊपर कहे गये मैथुन के नियमोंके अनुसार चले। होता है। इसी कारण चौथे दिनसे अर्थात् रजके वन्द होने पर मैथुन करनेको कहा है। मैथुनके समय मोहप्रयुक्त गिरते हुए वीर्यको कभी (सुश्रुत शरीरस्था० २०१०) भी न रोके। स्नान, चीनी मिला हुआ दही, चीनी शास्त्र में आठ प्रकारका मथुन बतलाया है। शक्कर आदिको वनी हुई वस्तु खाना, वायुसेवन, "स्मरयां कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् । मांसरस भोजन और निद्रा यह सब कार्य भैथुनके संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च । वाद हिनजनक है। अत्यन्त मैथुन करनेसे शूल, खांसी, मैथुनं विविधं त्यज्यं व्रते क्रीडाविवृद्धये ॥" ज्वर, दमा, कृशता, पाण्डु तथा आक्षेप आदि विविध (ब्रह्मवैवर्तपु० गणपतिख० ४० अ०) रोगोंको उत्पत्ति होती है । ( भावप्र० पूख० ) स्मरण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, आयुर्वेद और धर्मशास्त्रका अवलोकन करनेसे स्पष्ट अध्यवसाय और क्रियानिष्पत्ति यहो अष्टाङ्ग मैथुन है । मालूम होता हैं, कि एकमात्र सन्तानोत्पत्तिके लिये हो व्रत वा पूजादिके दिन यह अष्टाङ्ग मैथुन नहीं करना मैथुन करना चाहिये। अतएव इन्द्रिय-चरितार्थके लिये चाहिये । इस अष्टाङ्ग मैथुनकी निवृत्ति हो ब्रह्मचर्या है। निषिद्ध दिनमें मैथुन करना विशेष दोपावह और अधर्म- योगशास्त्रमें लिखा है, कि ब्रह्मचर्याक्री प्रतिष्ठा होनेसे प्रज्ञा जनक है। धर्मशास्त्रमे लिखा है, कि पर्वदिन ( चतु: प्राप्त होती है। जब इस अपाङ्ग मैथुनसे किसी प्रकार- र्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा और संक्रान्ति ) तथा | का मानसविकार उपस्थित न हो तब हो ब्रह्मचर्यको ज्येष्ठा, मूला, मघा, अश्लेषा, रेवती, कृत्तिका, अश्विनी प्रतिष्टा हुई, जानना चाहिये । और उत्तर-भाद्रपद, उत्तराषाढ़ा और उत्तरफल्गुनी नक्षत्र धर्मपत्नीको छोड़ कर अन्य स्त्रोके साथ मैथुन नहीं में मथुन निषिद्ध है; | करना चाहिये, करनेसे प्रायश्चित्त करना पड़ता है। "ज्येष्ठा मूला मघाश्लेषा रेखती कृत्तिकाश्विनी। मैथुनधर्मिन् (सं० पु०) मैथुनधर्मोऽस्यास्तोति इनि । उत्तरात्रितयं त्यक्त्वा पर्ववर्न बजेहतौ ॥" (आहिनकतत्त्व) | मैथुनधर्मविशिष्ट । इसके अतिरिक्त और सभी विषयों) आयुर्वेदके । “यमुनान्तर्जले भमस्तप्यमानं परं तपः । साथ एकमत है। सन्तानोत्पत्तिके लिये धर्मपत्नीके | निर्वृति मीनराजस्य दृष्ट्वा मैथुनधर्मिणः ॥" साथ किस प्रकार मैथुन करना चाहिये उसका विधान (भा० ६/६३६) सुश्रुतमे इस प्रकार लिखा है-खामी एक मास ब्रह्मचर्य- | मैथुनवास (सं० क्लो० ) मैथुनके समय पहननेका कपड़ा। का अवलम्वन कर स्त्रोके ऋतुकालके चौथे दिन अपराह्न | मैथुनाभिघात (सं० पु० ) एक प्रकारका रोग जो मैथनके कालमें दूध घीके साथ भात खावे। स्त्री भी एक मास | समय आघात वा चोट लगनेसे होता है। ब्रह्मचर्यका अवलम्वन कर उस दिन तेल लगावे और | मैथुनिक (सं० त्रि०) मैथुनकारी, संभोग करनेवाला । उड़द मिली हुई वस्तु भोजन करे। पोछे खामो वेदादि | मैथुनिन् (सं० वि० ) मैथुन अस्त्यर्थे इनि। कृतमैथुन, पर विश्वासी और पुनकामी हो कर ऋतुके चौथे, छठे, लोके साथ संभोग करनेवाला । मैटन के बाद स्नान कर आठवें, दशवें और बारहवें दिनमें लोके साथ मैथुन करे। लेनेमे शुद्ध होता है।