पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मैसूर ३५३ सामने वलि देनेका नियम नहीं है। निम्नथणीके के लिये प्रधान सेनापति दरवाजे के सामने खड़े रहते हैं तथा वे दो अभ्यागत व्यक्तियोंको आदरपूर्वक दरवारमें मनुष्य पवतके नीचे पशुबलि देते हैं। उक्त शारदीय पूजाको हम लोग नवराबव्रत कहते हैं। लाते है। महाराजके प्रासादमें भी जो नवरात्रवत होता है वह भी . अगरेज-प्रतिनिधिसे नीचे सभी राजकर्मचारियोंको सम्पूर्णरूपसे सात्त्विक पूजा है। देवीके मन्दिरके समीप | राजसम्मान दिखाने के लिये राजसिंहासनके सामने नरसिंहदेवका मन्दिर है । चिक्कदेवराजने विष्णुमन्नम | आ कर शिर झुकाना पड़ता है। राजा भी दाहिने हाथकी दीक्षित होनेके वाद इस मन्दिरका निर्माण किया होगा। गलीले अपना चिबुक स्पर्श कर सम्मान ग्रहण करते मन्दिरको चमावठ बहुत अच्छी है। हैं। इसके बाद हाथी आदिकी तरह तरहका खेल शुरू राजाका विश्रमागार पवतके बहुत ऊंचे शिखर पर होता है। यह सब हो जाने पर महाराज स्वयं समरवेश- बना हुआ है। राजपरिवारवग जब देवीको पूजा करने में सेनासे परिवेटित हो एक निर्दिष्ट स्थानमें जाते और आते हैं तव इसी स्थानमें ठहरते हैं। पहाडके समीप | शमीवृक्षमें तीरको निशाना करते हैं। इस समय भी देवराज नामक हद और उसके सामने स्वर्गीय राजाओं- तोपध्वनि होती है। अनन्तर सभी विजयोल्लाससे मत्त के समाधिस्थान हैं। भूतपूर्व महाराज कृष्णरायकी | हो राजभवन लौटते हैं । प्रथानुसार पान और सुपारी समाधिके ऊपर जो अट्टालिका वनी है वह बहुत उत्कृष्ट वांटनेके वाद सभा भङ्ग होती और महाराज उक सिंहा- है। महाराज जिस वडे कूर्मासन पर बैठ कर जप किया सनका प्रदक्षिण, पूजा और प्रणाम कर अन्तःपुर जाते हैं। करते थे वह उनको समाधिके ऊपर रख दिया गया है। यही महाराजका नवराबवत है। और उस पर महाराजको प्रस्तरप्रतिमूर्ति विराजमान है। नगरके दक्षिण भागमें यहांकां दुर्ग पड़ता है। १५२४ दूसरे दूसरे राजाओंके भी यहां पर समाधि-मन्दिर देखे | स माधि-मन्दिर देखे । ई०में उदैयार राजाओंके यससे वह दुर्ग बनाया गया है। जाते हैं। वे लोग जिस जिस पत्थरके आसन पर। दुर्गके समीप दलवाईकी खोदी हुई बड़ी दिग्गी है। १८०० वैठ कर जप करते थे, प्रत्येककी समाधिके ऊपर वह ई०में महाराजके यत्नसे तथा यूरोपीय कारीगरोंके शिल्प-- पत्थर रखा हुआ है। से दुर्ग और उसके भीतरके राजप्रासादका अङ्गसौष्टव यहांका 'दशहरा' उत्सव जनसाधारणके देखने लायक | बढ़ाया गया। प्रासादके सामने 'सेज' वा दशहरा है। इस समय देश देशान्तरसे बहुत लोग जमा होते हैं। उत्सवका वैठक-घर है। वह शिल्पनैपुण्ययुक्त काठके उस समय राजभवनके सामने लंबे चौड़े मैदानमें घुड़ खंभोंसे सुसजित है। यहांका हाथी-दांतका बना हुआ सवार सेना कतारमें खड़ी होती है। उसके पीछे नंगी सिंहामन देखने लायक है। कहते हैं, कि सम्राट औरङ्ग- तलवार हाथमें लिये पाइक और पाइकके पीछे पैदल सेना | जेवने राजा चिक्कदेवराजके शौर्यपर प्रसन्न हो १६६६ ई०- और सबसे पीछे नकीव और ध्वजावाहक खड़े रहते | में उन्हें यह यह सिंहासन दिया था। अभी वह सिंहा- हैं। इसके बाद महाराज वहुमूल्य मणिमुकादि खचित । सन सोने और चांदीके पत्तरोंसे विभूपित है। राज- वस्त्रोंसे भूपित हो कृष्णराय उदैयारके हाथो-दांतके बने प्रासादके मध्य 'अम्बाविलास' नामक दरवार घर तथा हुए सुन्दर कारुकार्ययुक्त सिंहासन पर बैठते हैं। उस चित्रशाला विशेष उल्लेखनीय है । यह चित्रशाला प्राचीन समय तोप दागी जाती है। अनन्तर वैदिक ब्राह्मण राजप्रासाद समझी जाती थी। इसके चारों ओर जो राजाके चारों ओर खड़े हो कर वेदगानसे राजाको मिट्टीको दीवार थी उसे टीपू सुलतानने तोड़ दिया था। आशीर्वाद देते हैं। वारमें भांति भांति वाजे वजाये जाते | अभी उसका पुनः संस्कार किया गया है। हैं। सेना एक स्वरसे जयोचारण करती है। इस समय दुर्गके पश्चिम द्वारके सामने जगन्मोहन-महल नामक अगरेज राजप्रतिनिधिके उपस्थित होने पर उन्हें सलामी एक बड़ा महल है। यूरोपोय कर्मचारियों के स्वागनके तोपें दी जाती हैं। सम्भ्रान्त व्यक्तियोंका सम्मान करने- लिये भूतपूर्व महाराजने इस महलको वनवाया था, वह Val, XII1, 89