पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३६६

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पोत प्रत्येक तन्मात्र है। अर्थात् आकाश आकाशमान, वायु इस पञ्चीकृत पश्च महाभूतसे यथाक्रम भूलोक वा भूमि- वायुमात्र इत्यादि। आकाशादिमेंसे कोई भी भूतान्तर- लोक, भुवलोक वा अन्तरीक्ष लोक, महर्लोक, जनलोक, मिश्रित नहीं है। तपोलोक और सत्यलोक जो एक दूसरेके ऊपर परमेश्वरने मायासहित जगत्को सृष्टि की है। माया | अवस्थित है उनकी तथा नोचेके अतल, वितल, सुतल, लिगुणात्मिका है, तत्सृष्ट आकाशादि भी त्रिगुणात्मक है | रसातल. तलातल, महातल और पाताल नामक चार लेकिन आकाशादि त्रिगुणात्मक होने पर भी तमोगुण प्रकारके स्थूल शरीरको एवं तद्भोग्य अन्नपानादिकी ही उसमें अधिक है। इस कारण सत्यादि गुणका उत्पत्ति होती है। कार्य आकाशादिमें दिखाई नहीं देता। स्थूल शरीरका दूसरा नाम अन्नमयकोष है। कम- ___माकाशादि पञ्च तन्मात्रमेंसे एक एक ज्ञानेन्द्रियको न्द्रियके साथ प्राणादि वायुपञ्चकका नाम प्राणमयकोष सृष्टि हुई है। आकाशके सात्त्विकांशसे श्रोत, वायुरे, और कर्मेन्द्रियके साथ मनका नाम मनोमयकोष और सास्विकांशसे त्वक, तेजके सात्विकांशसे चक्ष , जलके | ज्ञानेन्द्रियके साथ वुद्धिका नाम विज्ञानमयकोष है। सात्त्विकांशसे रसन तथा पृथ्वीके सात्त्विकांशसे प्राण संसारका मूलीभूत अज्ञान आनन्दमयकोष है। यह पञ्च- को उत्पत्ति हुई है। श्रोत्रका अधिष्ठात्री देवता सूर्य, कोष आत्मा नहीं है, आत्मा कुछ और है। सदानन्द रसनका अधिष्ठात्री देवता वरुण और प्राणका अधिष्ठात्री योगीन्द्रका कहना है,-विज्ञानमयकोष ज्ञानशक्तिमान 'देवता अश्विनीकुमार है। है, वह फरूप है । इच्छाशक्तिवान मनोमयकोष श्रोत्रादि पांच ज्ञानेन्द्रिय यथाक्रम दिक् आदि पांच करणरूप है। क्रियाशक्तिमान् प्राणमय कोप कार्यरूप देवतासे अधिष्ठित हो शब्दादि विषयको प्रहण करती है। एक साथ मिले हुए प्राणमय, मनोमय, और विज्ञान- अथवा उसमें ज्ञान सम्पादन करती हैं। भाकाशादि। मयकोषको लिङ्गशरीर वा सूक्ष्मशरोर कहते हैं। पूर्वा- पञ्चतन्मानका सात्त्विकांश एक साथ मिल कर मन और चार्यगण कहते हैं,- बुद्धिको सृष्टि करता है। अहङ्कार और वित्त मन तथा 'पञ्चप्राणमनोबुद्धिदशेन्द्रियसमन्वितम् । वृद्धिके अन्तर्गत है। मन, बुद्धि, अहङ्कार और चित | अपञ्चीकृतभूतोत्थं सुक्ष्माङ्ग भोगसाधनम् ॥" इनका नाम अन्तःकरण है। मनका अधिष्ठात्री देवता पञ्चप्राण, मन, बुद्धि और दशेन्द्रिय यह भोगसाधन चन्द्र, बुद्धिका चतुर्मुख, अहङ्कारका शंकर तथा चित्रका सूक्ष्म शरीर है। अपञ्चोकृत भूतसे यह उत्पन्न हुआ है। अधिष्ठात्री देवता अच्युत है। मन प्रभूति अन्तःकरण उक यह सूक्ष्म शरीर मोक्षपर्यन्त स्थायी है। देवताओंसे अधिष्ठित हो उस विषयका भोग करता है। पूर्वाचार्योंने संसारके मूलीभूत अज्ञानको कारण- आकाशादि पृथक पृथक् रजके अंशसे पांच कर्म- शरीर बतलाया है। यह प्रत्येक शरीर ध्यष्टि और समष्टि- न्द्रियकी उत्पत्ति हुई है। आकाशके रजोशसे वाक् । रूपमें दो श्रेणियोंमें विभक है। जीव व्यप्टिकारण-शरी- वायुके रजोंशसे हाथ, तेजके रजोशसे पैर, जलके रजोंश राभिमानी है और ईश्वर समष्टिकारण शरीराभिमानी से पायु और पृथिवीके रजोंशसे उपस्थ उत्पन्न हुआ है। है। समष्टिकारण शरीर वा समष्टि अज्ञान विशुद्ध इनके अधिष्ठात्री देवता यथाक्रम अग्नि, इन्द्र, उपेन्द्र, यम | सत्त्वप्रधान है, तदुपहित चैतन्य सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, सर्व- और प्रजापति है। नियन्ता, जगत्कारण और ईश्वर नामसे प्रसिद्ध है। - आकाशादिगत रजके अंशोंके मिलनेले प्राणादि वायुसमष्टि सूक्ष्म शरीराभिमानी वा समष्टि सूक्ष्म शरीर पञ्चकको सृष्टि हुई है । कर्मेन्द्रिय क्रियात्मक होनेके उपहित चैतन्य सूत्रात्मा हिरण्यगर्भ और प्राण कहे कारण पूर्वाचार्योने उन्हें रजोंश स्थिर किया है । आका गये है। हिरण्यगर्भ आदि जीव है। व्यष्टि सूक्ष्म शादिसे पञ्चीकृत पञ्च महाभूतोंकी उत्पत्ति हुई है। :. शरीरोपहित चैतन्य तैजस नामसे, समष्टि स्थूल- पञ्चीकरणका विषयं पञ्चीकरया शब्दमें देखो। शरीरोपहित चैतन्य वैश्वानर वा विराट् नामसे तथा