पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३७०

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मोत जाय, तो निश्चय है, कि सुधीगण वैराग्यके पक्षपाती : जा सकता है। "ब्रह्म व नित्यं वस्तु ततोऽन्यदखिलमनित्य- हुए बिना नहीं रह सकते । यह शरीर मलमूत्रका मिति विवेचनम् ।" भाण्डोर है, अपवित्रताका आधार है। आश्चर्यका विषय ब्रह्म हो एकमात्र नित्य वस्तु है, इसके सिवा और है, कि जिस शरीर ले कर हम लोग ऐसा अहङ्कार करते सभी अनित्य है । अतएव नित्यवस्तुका त्याग कर हैं उस शरीरकी अपेक्षा दूसरी कोई चोभत्स वस्तु है वा ! अनित्यके प्रति आकष्ट होना विद्वानोंका कर्तव्य नहीं । अतःविद्वानोंको चाहिये, कि वे अनन्यशर्मा हो तत्त्वज्ञान- नहीं, कह नहीं सकते। . सुधियोंका कहना है, कि शरीर में कभी भी पवित्रता- लाभके प्रति विशेष लक्ष्य रखें । तत्त्वज्ञानलाभ करनेसे वे का लेशमात्र नहीं देखा जाता। उसका आदि, मध्य वन्धनसे मुक्त हो मोक्षलाभ करते हैं। और अन्त सभी अपवित्र है। संसारकी ऐसी भयावह पहले कहा जा चुका है, कि वन्धनमोचन ही मोक्ष गति है, कि यह अपवित्र शरीर भी विना उद्वेगके नहीं है तथा यही परम पुरुषार्थ वा अपवर्ग है। मोक्ष ब्रह्म- रह सकता। जरा, मरण, शोक, रोग यह जीवके ज्ञान-समधिगम्य है। ब्रह्म-ज्ञानलामका प्रथम उपाय हमेशा साथ रहनेवाला है । शरीरका मरण अवश्य ! वैराग्य है। यह वैराग्य किस उपायसे लाभ किया जाता म्भादी है. इस कारण संसार-गतिको पर्यालोचना कर है, ऊपर कहा जा चुका है। विनश्वर क्षणिक सुखकी वैराग्य तथा आत्मसाक्षात्कार के लिये श्रवण, मननादि । लालसामें विमुग्ध हो अविनश्वर मोक्षके लिये समुत्सुक उपायका अवलम्बन करना विलकुल ठोक है। न होना सोनेके लिये यत्न न कर आपातरमणीय चम- वैराग्य आत्मतत्त्वज्ञानका एक उत्कृष्ट उपाय कोली मुट्ठी भर धूलोके लिये कोशिश करनेके समान है। है । संसारगतिकी पर्यालोचना द्वारा वैराग्यका . . . वेदान्त देखो। आविर्भाव होता है । इस संसार-गतिका विषय न्यायदर्शनमें मोक्षका विषय जैसा लिखा है बहुत संक्षेपमें कहा गया । सृष्टि, स्थिति, प्रलय, इस संक्षेपमें उसका विषय यहां पर लिखा जाता है। विषयको बार बार आलोचना करते करते तीव्र वैराग्यका न्यायके मतसे आत्यन्तिक दुःखका ध्वंस हो मुक्ति उदय होता है, तब.फिर जीव स्थिर नहीं रह सकता।। है। शरीर-इन्द्रियादिका सम्बन्ध रहनेसे दुःखको अत्यन्त मोक्षलाभके लिये व्याकुल हो कर मनन और निदि-विनाश असम्भव है। क्योकि, अनिष्ट वा अनभिमत ध्यासन किया जाता है.। धीरे धीरे आत्मतत्त्वज्ञान-विषयके साथ इन्द्रियका सम्बन्ध होनेसे दुःखकी उत्पत्ति लाम.होनेसे फिर मायिक बन्धन नहीं रहता, अज्ञान दूर और अनुभव अनिवार्य है। अतएव मुक्तिकालमें शरीर हो जाता है। जीव उस समय 'तत्त्वमसि' वाक्यका और इन्द्रियके साथ आत्माका कोई भी : सम्बन्ध नहीं पायायं समझ सकता है। उसी समय उसे मोक्ष . रहेगा। आत्मा शरीर और इन्द्रियसे विच्छिन्न हो होता है.। : तत्त्वज्ञान जब तक नहीं होता, तब तक जायगी। शरीरको इन्द्रियोंके साथ आत्माका विच्छेद उसका भ्रम दूर हो ही नहीं सकता। अतएव तत्त्व- होनेसे आत्माको जिस प्रकार दुःख नहीं हो सकता, झान ही एकमात्र मोक्षका कारण है। . उसी प्रकार सुख भी नहीं हो सकता। यहां तक, कि . जो मोक्षाभिलाषी हैं उन्हें उचित हैं, कि वे पहले शरीरादि सम्बन्धके सिवा आत्मामें किसी प्रकारका • तत्त्वज्ञानलाभकी चेष्टा करें। ज्ञान चेतना तक भी होने नहीं पाती। क्योंकि, आत्मा नित्यानित्य वस्तुविवेक, इहामूत्रफलभोगविराग, मनके साथ, मन इन्द्रियके साथ, इन्द्रिय विपयके साथ शाम, दम, उपरति और तितिक्षा आदि साधनसम्पत्ति संयुक्त होनेसे आत्मामें ज्ञान वा चेतनाका सञ्चार वा प्राप्त कर सकनेसे मोक्षलाभ होता है। सृष्टि, स्थिति उत्पत्ति होती है। मुक्तिकालों चक्षुरादि इन्द्रियके साथ और प्रलयके विषयकी आलोचना करनेसे, कौन वस्तु सम्बन्ध अलग होनेसे जिस प्रकार आत्माके चाक्षु पादि नित्य और कौन वस्तु अनित्य है। यह आसानोसे जाना ज्ञान नहीं हो सकता, मनके साथ भी सम्ब'ध अलग