पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३७३

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३७० - मोक्ष उत्पत्तिकी आशंका नहीं हो सकती। वेदोक्त यज्ञादि ! होती है सही पर आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं होता, द्वारा स्वर्ग लाभ किया जा सकता है तथा उससे दुःख- पुनराय उसको उत्पत्तिकी सम्भावना रहती हैं। की निवृत्ति भी हो सकती है तथा अनेक जन्मपरम्पराके वेदोक यज्ञादि अनुष्ठान द्वारा स्वर्गप्राप्त होता है, आयाससाध्य विवेकज्ञानकी अपेक्षा यज्ञादिका अनुष्ठान स्वर्ग अर्थमें दुःखविरोध सुख है। इसलिये उससे थोड़े दिनों में हो भी सकता है तथापि इसके अनुष्ठानसे | दुःखनिवृत्ति हो सकती है तथा अनेक जन्मपरम्परासे भी दुःखका समुच्छेद होने पर भी अत्यन्त समुच्छेद | भायाससाध्य विवेकज्ञानको अपेक्षा वेदोक्त यज्ञाटिका नहीं होता। अनुष्ठान थोडे समयमें हो सकता है तथापि वेदोक्त उसका एकमात्र कारण यही है, कि वेदोक्त अनुष्ठान यज्ञादि अनुष्ठान द्वारा दुःखका समुच्छेद होने पर भी में पशु और वीजादिकी हिंसा करनी होती है। यह ) | अत्यन्त समुच्छेद नहीं होता। यज्ञादि हिंसादि दोप- हिंसा पापजनक है। यज्ञानुष्ठानसे जिस प्रकार प्रभूत | युक्त उससे पाप और पुण्य दोनों होता है । इसीसे पुण्य संचय होता है, उसी प्रकार उसे हिंसासाध्य वतला | हिंसाजनित पापहेतु दु:ख तथा पुण्यके लिये स्वर्ग कर प्रभूत पुण्यके साथ साथ यत्किचित् पापका भी संचय | होता है। होता है। अतएव यज्ञकर्ता जब स्वोपार्जित पुण्यराशिक। अतएव इससे दुःखका ऐकान्त उच्छेद नहीं होता। फलस्वरूप स्वर्गसुखका उपभोग करेंगे तव हिंसाके लिये | लौकिक धनादि और वैदिक कर्मकाण्ड दोनों हो समान है पापांशके फलस्वरूप यत्किञ्चित दुःख भी उन्हें भोग | आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति धनादि द्वारा नहीं होती, वैदिक करना होगा। किन्तु स्वर्गीय पुरुप सुखकी मोहनी | यागयज्ञादि द्वारा भी नहीं होती। इस विषयका सिद्धान्त शक्तिके प्रभावसे ऐसा मुग्ध हो जाते हैं, कि दुःख- यही है, कि वेदविचारजनित विवेकज्ञानके सिवा अन्य कणिकाको वे दुःख समझते ही नहीं। किसी हालतसे भी मोक्षरूप परमपुरुषार्थ लाभ नहीं हो "मृष्यन्ते हि पुण्यसम्बरोपनीता त्वर्गसुधामहाहदावगाहिनः । सकता। कुशलाः पापमात्रोपपादिता दुःखवह्निकणिका" ( तत्त्वको०) सम्प्रति वन्धन क्या है, कहता हूं। मुक्ति बन्धन घेदोक्त स्वर्गफलजनक कर्म इस प्रकार नहीं है। सापेक्ष है। सुतरां मुक्ति शब्दसे हो वन्धन कहा गया कर्मके तारतम्यानुसार स्वर्गका तारतम्य होता है तथा है। दुःखनिवृत्ति ही मुक्ति है। यह बातमें कहा स्वर्ग भी चिरस्थायी नहीं है, कल उसका भी नाश | गया है, कि दुःखसंयोग हो बन्धन है। जीवका वन्धन होगा। भगवान्ने स्वयं कहा है- क्या स्वाभाविक है ? इस प्रश्न के उत्तरमें शास्त्रने कहा ___ "ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं है,-वन्धन स्वाभाविक नहीं। स्वाभाविक होनेसे शास्त्रमें विशन्ति" (गीता०) जो मुक्तिका उपाय निर्देश है तथा जो विधान या अनु. पुण्यात्मा लोगोंके स्वर्गभोग करनेके वाद पुण्यक्षय ठानप्रणाली कथित है वह वृथा हो जाती है। वन्धन होनेसे मर्त्यलोकमें प्रवेश करती हैं । अतः इससे सावित | स्वाभाविक होनेसे शास्त्रमें मोक्षका उपाय अभिहित नहीं हुआ, कि दृष्ट वा लौकिक उपाय औषधादि तथा अदृष्ट | होता है यह निश्चय है । अग्निकी उष्णता खाभा- वा वैदिक उपाय यज्ञानुष्ठानादि इसके किसी उपायसे भो विक है वह किसी हालतसे निवारित नहीं होती। दुःखकी एकदम निवृत्ति नहीं हो सकतो । सुतरां होनेसे उसके साथ अग्नि भी कम हो जाती है। स्वभाव वेदोक्त एकमात्र विवेकज्ञानरूप उपाय अवलम्बन करनेसे अपवाहित नहीं होता, जब तक द्रव्य है तभी तक रहता ही दुखकी विलकुल निवृत्ति हो सकती है। . है । दुःखसंयोगरूप वन्धन खाभाविक होनेसे वह जब अतएव यह सिद्ध हुआ, कि यह दुःखनिवृत्ति द्रुष्ट | तक पुरुष है तभी तक रहेगा, किसी तरह नहीं हटेगा। उपायसे या शास्त्रीय यागयज्ञादिक अनुष्ठानसे भी नहीं अतएव दुःखसंयोगरूप वंधन . पुरुषका स्वाभाविक होती है। प्रात्यहिक क्षनिवत्तिकी तरह दुःखनिवृत्ति | नहीं है।