पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३७५

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३७२ मोक्षमूलर ई०में देसौ (Dessau ) नगरमें उनका जन्म हुआ। इनके | संस्कृत और अन्यान्य प्राध्यभाषाको प्रन्योंकी तालिका पिता एनहाल्टदेशाऊके ड्युकालपुस्तकागारमें लाइब्रेरि- देख कर ये मुग्ध और आकृष्ट हो गये और वलिनके यंन थे। विश्वविद्यालयमें आ कर उनका अध्ययन करने लगे। अध्यापक मूलर सम्भ्रान्तवंशमें उत्पन्न हुए। यह यहां हिब्रू और संस्कृतकी चर्चा में अविश्रान्त परिश्रम फिसीसे भी छिपा नहीं है। उनका पितृ और मात.. और आयास स्वीकार कर प्रसिद्ध भाषातत्ववित् अध्या- वश जर्मनदेशमें विशेष सम्भ्रांत था। दोनों ही सारदा-पक वप और सोलिङ्गके यत्नसे इनका उन सव भाषाओं के अनुगृहीत थे। पितामह महाकवि गेटे शिक्षा-1 में पूरा दखल हो गया था। विभागके प्रधान संस्कारक थे, इस कारण उनका तमाम अठारह वर्षको उमरमें मोक्षमूलर विद्यालयका परि- आदर थी। पिता विलहेल्म मूलर एक सुप्रसिद्ध जमन त्याग र जीविकार्जनमें अग्रसर हुए। पेटको चिन्तामें कवि थे। पिताके दारिद्यदोपके कारण कविपुत्र रात दिन लगे रहने पर भी इन्होंने लिखना पढ़ना नहीं' मोक्षमूलरको वचपनसे हो बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ झेलनी छोड़ा। इस समय इन्होंने संस्कृत साहित्य-समुद्रको पड़ी थी। उन्हें शैशवकालसे ही जीविकाजनके साथ मथ कर रत्न निकाल लिये और अपनी मातृभाषांकी साथ अपनी चेष्टासे शिक्षासोपान पर चढ़ना पड़ा था। उन्नतिमें बद्धपरिकर हुए। २० वर्षकी उमरमें कदम . दारिद्र्यप्रपीडित वालक मोक्षमूलर बड़े अध्यवसाय बढ़ाते ही इन्होंने विष्णुशर्माकृत हितोपदेशका जमनभाषा- से लिखना पढ़ना शुरू कर दिया। विद्यालाभके वाद | में अनुवाद कर एक नया रास्ता निकाला। किसी वन्धु द्वारा अवरुद्ध हो कर इन्होंने स्वयं उत्तरमें ___ संस्कृत साहित्यके अध्ययनके साथ साथ इनकी कहा था, "दरिद्रता और कठोर परिश्रमने मुझे अपनी ज्ञानपिपासा भी धीरे धीरे बढ़ने लगी। इसके बाद पे उन्नति करने में सहायता पहुंचाई है।" फ्रांसको राजधानी पेरिस शहरमें आ कर प्राच्य भाषा- . वालक मोक्षमूलर १२ वर्षकी उमर तक हेलेऊ विद्या- वित् पण्डितप्रवर युजिन वुर्नाफके यत्न और उपदेशसे लयमें पढ़ते रहे। यहां सङ्गीतविद्यामें इन्होंने अच्छी | ज्ञानोनति करने में अग्रसर हुए। योग्यता प्राप्त कर ली। यहां तक कि, इनके सङ्गीतसे पेरिस नगरमें पण्डित चुर्नाफको संस्कृत साहित्य- तात्कालिक जर्मनवासी अनेक महात्मा मुग्ध हो कर इन- विषयक वक्तृता सुन कर प्राचीन आर्यहिन्दुओंके परम के प्रति आकृष्ट हो गये थे। पिताकी अवस्था अत्यन्त पूजनीय ग्रन्थ तथा सारी प्राचीन भार्यजातिके आदिग्रन्थ शोचनीय होने के कारण इस समय भी ये हाथकी लिखी बेदके ऊपर उनका विशेष अनुराग हो गया। उस ज्ञान- पुस्तकोंकी नकल करने और उसीसे जीविका चलाने मय वेदक अध्ययन तथा उसके यथेष्ट प्रचारका इन्होंने वीड़ा उठाया तथा सभाष्य ऋग्वेद प्रकाशित करनेकी १८४१ ईमें लिपजिक कालेज में प्रविष्ट हो कर इन्हों. इच्छा प्रकट की। इसी समय बुफिके साथ इनका ने १८४३ ई में Ph D. की उपाधि प्राप्त की। विश्व- परिचय हुआ। उक्त अध्यापकसे शिक्षाके प्रारम्भकाल- विद्यालयमें उस समय हमण और हाप्ते नामक दो पंडित में विशेष कष्ट पा कर ये अपनी सङ्कल्पसिद्धि के विषयमें संस्कृत पढ़ाते थे। उन्हींसे मोक्षमूलरकी संस्कृतविद्या- निरुत्साह हो गये। अभी वे.. बुनाफके आदेशानुसार में अच्छी व्युत्पत्ति हो गई। संस्कृतकी ओर उनका मूल और भाष्यके साथ ऋग्वेदग्रन्थ सङ्कलन करनेमें लग अनुराग दिनोंदिन बढ़ने लगा। गये। वुर्नाफने इनसे कहा था, "इस बड़े कार्यमें जब उपाधि पानेके बाद इन्होंने बर्लिन विश्वविद्यालयमें हाथ डाला है, तब यूरोपको संगृहीत सभी पुस्तकोंको प्रवेश किया। पूर्वजन्मार्जित सुकृतिसे इनके सुकोमल / पढ़ो और उनका पाठ मिला कर देखो। वेद प्रकाश हृदय में संस्कृत अनुरागका सञ्चार होने लगा। भारत | करनेमें सभाष्य प्रकाशित करना ही उचित है, केवल और एशियाखण्डसे संगृहात हाथके लिखे प्राचीन कुछ श्लोकोंके ऊपर निर्भर नही किया जा सकता लगे।