पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/३७७

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३०४ थोक्षमूलर • १८७८ ई०में रावर्ट हार्वटने धर्म की उत्पत्ति और रणके मुद्रणकालमें हम जिन आदर्श ग्रन्थोंके आधार पर विकाश'के सम्बन्धमें वक्तृता देनेके लिये एक वृत्ति दी। मुद्रणकार्यमें अग्रसर हुए थे अभी उसकी अपेक्षा और अध्यापक मोसमूलर उस व्यवस्थापित वृत्तिके दान-1 भी हमें एक आध ग्रन्थ मिला है। उससे इस संस्कृत पत्रानुसार वक्ताके पद पर नियुक्त हुए। उनकी धर्मो-। संस्करणका जहां तक हम समझते हैं, बहुत उपकार हो पदेशपूर्ण वक्तृता दिनमें दो बार सुन कर श्रोता तृप्त न | सकता है।' होते थे। १८८८ ई० में स्काटलैण्डके प्रसिद्ध वैरिष्टर ) इस प्रकार कुछ समय बीत जाने पर विद्योत्साहो एडस गियोगर्डने धर्मविज्ञान science of Religion | स्वधर्मनिरत विजयनगरके उदार राजाने मोक्षमूलर को इस संक्रान्त वक्तृताके लिये एक दूसरी वृत्ति प्रदान की। आशय पर एक पत्र लिखा, कि ऋग्वेदके संस्कृत-संस्क- अध्यापक मोक्षमूलर उसके भो वक्ता नियुक्त हुए थे। रण छपवाने में जो कुछ खर्च होगा उसे वे सहर्ष वेंगे। पीछे वे सब वक्तृताएं छप गई और विद्वत्समाजमें उन- उस पत्र में उन्होंने भारतवासीको कृतज्ञता जताते हुए का प्रचार तथा यथेष्ट आदर हुआ। लिखा था,- Yout study of the literature of ऋग्वेदका प्रचार कर मोक्षमूलर विश्वविख्यात हो India and its people, has decidedly established गये हैं। ऋग्वेदका प्रथम संस्करण छपवाने में जितना a great claim on all Hindus to help you to खर्च हुआ था उससे दूना लाभ हुआ। इष्ट-इण्डिया the best of their abilities in any undertaking, कम्पनीके डिरेक्टरोंने ५०० प्रन्थ बेच कर ७५००० रुपये much more in one of such literary and reli- gious importance to ourselves." उक्त महाराज संग्रह किये। इसके बाद इन्होंने उक्त सभाष्य ऋग्वेद- साहित्य-संहिताका एक संस्कृत-संस्करण प्रकाशित बड़े लारकी व्यवस्थापक समाके सभ्य थे। मान्द्राज- करनेकी इच्छा प्रकट को । तदनुसार इन्होंने भारतके स्टेट के शासनकर्ता सर मनष्टुवारी इ, प्राण्टडफके साथ उस. सेकेद्रीसे सहायता मांगी। विलायतके भारत-सचिवने | को गाढ़ी मित्रता थी। राजासे इस प्रकार बचन पा कर मोक्षमूलरने फिरसे जब उनकी मांग पूरी न को, तब इन्होंने फिरसे इष्ट- इण्डिया कम्पनीकी भारतीय कौंसिल में अपना अभिप्राय वह वृहत् कार्य ठान दिया। इस समय इनको अवस्था दल गई थी, इसलिये अपने कार्यके सहायकरूपमें इन्होंने पेश किया। कम्पनीके भारतीय पुस्तकालयके लाइब्रेरि- संस्कृताभिज्ञ Dr. Winternite को ग्रहण किया। दोनों यन् विख्यात संस्कृतश पण्डित महामति ह, ह, विलसन- महान् व्यक्ति वर्णाशुद्धि और भ्रमसंस्कारादि कार्य शेष ने इस महत् उद्देश्यको सिद्धिके लिये इण्डिया कौंसिल- कर १८४८ ई०के वसन्तकालमें प्रन्ध छपवानेमें लग की साहित्यसमितिको ( Literary Committee of गये। १८९२ ई०की २०वीं अप्रिलको राजाके अनुग्रहसे the India Council ) विशेषरूपसे अनुरोध किया, पर इस द्वितीय संस्करणका कार्य समाप्त हुआ। इसके कोई फल न निकला। कुछ समय पहले बम्बईवासी बोड़श राजारामशास्त्री . इस समय भारतीय बहुतसे सम्भ्रान्त व्यक्तियोंने उन- और गोरे शिवराम शास्त्री नामक दो पण्डितोंने सायण- के प्रकाशित ऋग्वेदके प्रथम संस्करणको पुनः निकालने- का भाषाटीका समेत एक ऋग्वेद प्रकाशित किया। की उनसे अनुमति मांगी थी। उदारमति मोक्षमूलरने वह प्रथ यद्यपि विशुद्ध नहीं था, तो भी उसे मोक्षमूलर कहा था, उपयुक्त पण्डितों द्वारा यदि इसका पुनः संस्क- ने कई जगह सहायता ली थी। रण हो जाय, तो हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं ; किन्तु उन्होंने विजयनगराधिप महाराजधिराज सर पशुपति दुःख है, कि इसका पुनः मुद्रण करके ही क्या फल होगा। आनन्द गजपतिराज K. C. I, E. को तथा अपने मित्र मैंने इस सम्बन्धमें फिरसे तीन वर्ष आलोचना करके जो • भ्रमसंशोधन कर ग्रन्थका कलेवर बढ़ानेको इच्छा की है | और सहायकोंको धन्यवाद देते हुए प्रन्थका उपसंहार उसका इससे कोई फल नहीं होगा। फिर प्रथम संस्क! किया । जिस राजवंशमैं धुक्कराय सायणके प्रतिपालक थे,