पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४०१

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३८ मोहरात्रि-मोहिनी मोहरात्रि (सं० स्त्रो०) मोहस्य रातिः। १ दैनन्दिन प्रलय।। भैरव आदि मोहशास्त्र प्रणयन किये। यह मोहशास्त्र "एवं पञ्चाशदब्दे च गते तु ब्रह्मणे नृप । असच्छास्त्र वा मिथ्याशास्त्र के बीच गिना जाता है। दैनन्दिनन्तु प्रलयं वेदेषु परिकीतितम् ॥ मोहार (हिं० पु० ) १ द्वार, दरवाजा । २ मुंदडा, अगला मोहरात्रिश्च सा प्रोक्ता वेदविद्भिः पुरातनः। भाग। ३ मधुमक्खीकी एक जाति जो सबसे बड़ी होतो तत्र सर्वे प्रणष्ठाश्च चन्द्रादि दिगीश्वराः ॥" है। इसे सारंग भी कहते हैं। ४ मधुका छत्ता। ५ (ब्रह्मवैवर्तपु० ५४ २०) प्रलय शब्द देखो। भौंरा। ब्रह्माके पचास वर्ष बीतने पर जो दैनन्दिन प्रलय | मोहारनी (हि. श्री०) पाठशालामै बालकोंका एक साथ होता है उसीको मोहरात्रि कहते हैं। खड़े हो कर पहाड़े पढ़ना। २ जन्माष्टमी रात्रिका नाम मोहरात्रि है। मोहाल (अ0पु0) पूरा गांव वा उसका एक भाग अथवा "दीपोत्सवचतुर्दश्याममया योग एव चेत् । कालरात्रिमहेशानि ! तारा काली प्रियङ्करी। कई गांवोंका समूह जिसका वन्दोवस्त किसी नंवरदारके जन्माष्टमी महेशानि ! मोहरात्रि प्रकीर्तिता ॥" साथ एक वार किया गया हो। मोहाल (हिं० पु.) १ मधुमक्खीको एक जाति, मोहार। (शक्तिसङ्गसतन्त्र) मोहराना (फा० पु०) मोहर करनेकी हजरत, वह धन जो | २ मधुमक्खीका छत्ता। किसी कर्मचारीको मोहर करने के लिये दिया जाय। मोहित (सं० वि०) १ मोह या भ्रममें पड़ा हुआ, मुग्ध । मोहरी ( हिं० स्त्रो०) १ बरतन आदिका छोटा मुह या २ मोहा हुआ, आसक्त । खुला भाग। २ पाजामेका वह भाग जिसमें टांगे रहती मोहिन (सं० त्रि०) मोहयति मुह, णिच्-णिनि । मोहकर्ता, हैं। ३ मोरी देखो। ४ एक प्रकारको मधुमक्खी जो | मोहनेवाल। मोहिनी देखा । खानदेशमें होती है। मोहिनी (सं०नि०) १ मोहनेवाली। (स्रो०) २ त्रिपुर- मोहरिर (अ० पु०) वह जो किसीके कागज बादि लिखने माली नामक फूल, बेला। ३ वटपत्री, पथरफोड़। ४ का काम करता हो, मुंशी। विष्णुके अवतारका नाम। भागवतके अनुसार विष्णुने मोहलत (अ० स्त्री०) १ फुरसत, अवकाश । .२ किसी यह अवतार उस समय लिया था जब देवताओं और कामके पूरा करनेके लिये मिला हुआ या निश्चित समय, दैत्योंने मिल कर रत्नोंके निकालनेके लिये समुद्र मथा अवधि। था और अमृतके निकलने पर दोनों उसके लिये परस्पर मोहला (अ० पु०) महल्ला देखो। झगड़ रहे थे। उस समय भगवान्ने मोहिनी अवतार मोहवत् (सं० वि० ) मोह-अस्त्यर्थे मतुप मस्य व । मोह धारण किया था और उन्हें देखते ही असुर मोहित हो युक्त, मोहविशिष्ट। कर बोले थे, कि अच्छा लाओ हम दोनों दलों के लोग बैठ मोहशास्त्र (सं० क्ली० ) मोहोत्पादकं शास्त्रमिति मध्यपद- जय और मोहिनी अपने हाथ से अमृत घांट दे। दोनों लोपि कर्मधा। अविधाजनक प्रन्थ, वह शास्त्र जिसकी | दलोंके लोग पंक्ति वांध कर बैठ गये और मोहिनो रूप आलोचना करनेसे मोहकी उत्पत्ति होती है। विष्णुने अमृत बांटनेके वहानेसे देवताओंको अमृत और "एवं सम्बोधितो रुद्रो माधवेन सुरारिया। असुरोंको सुरा पिला दी। (भारत० १॥१८ अम्याय) चकार मोहशास्त्राणि केशवोऽपि शिवेरितः ॥ ५माया, जाद। ६ वैशाख शुक्ल एकादशीका नाम । कापालं नाकुलं वाग भैरवं पूर्वपश्चिमम् । ७ अर्द्ध सम वृत्तिका नाम। इसके पहले और तीसरे पश्चरात्रं पाशुपतं तथान्यानि सहस्रशः ॥" वरणमें बारह और दूसरे तथा चौथे चरणमें सोत (कूर्मपु० १४ अ०) मालाए होती हैं और प्रत्येक चरणके अन्तमें एक महादेवसे भेजे जाने पर विष्णुने कापाल, नाकुल, । सगण अवश्य होता है। ८ पन्द्रह अक्षरोंके एक वर्णिक