पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४१६

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म्लेच्छ-लेन्जाति '४१३ जिससे म्लेच्छ जातिको उत्पत्ति हुई। ये लोग बिलकुल । वृहत्पराशरके मतसे- काले हैं। "ब्रह्मक्षत्रियविटशुद्रा जाता स्तेऽनुक्रमेण तु । शास्त्र में म्लेच्छ भाषा सीखनेसे मना किया है। क्रमातिक्रमतश्चान्ये म्लेच छान्य वर्गासम्भावाः ॥".(६०) "न सातयेदिष्टकाभिः फलानि वै फलेन तु । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद ये चार जाति नधा- न म्लेच्छभाषां शिक्षत नाकञ्च पदासनम् ॥" क्रम उत्पन्न हुई । इनके परस्पर संनवसे अन्यान्य (कूर्मपु० उपवि० १५ अ०)| जातियोंकी उत्पत्ति हुई, किन्तु म्लेच्छ जाति एतद्भिन्न म्लेच्छके साथ मन्त्रणा नहीं करनी चाहिये। अन्य वर्णसे उत्पन्न हैं। . "जड़मूबान्धबधिरां स्तैर्यगयोनीन वयोऽतिगान् । विष्णुपुराणके मतसे (६४ अ०)-"न म्लेच छान्त्यज. स्त्रीम्लेच्छव्याधितव्यज्ञान् मकालेऽपसारयेत् ॥" पतितैः सह सम्भात्रयां कुर्यात् ।" अर्थात् द्विजातिको (मनु० ७११४६ )/ म्लेच्छ, अन्त्यज और पतितके साथ आलाप नहीं करना यह जाति पशुधर्मी है तथा सव प्रकारके आर्याचार-| चाहिये। रहित है। पराशरने भी कहा है- "गुरुदारप्रसक्तेषु तिर्यकयोनिगतेषु च । "म्लेच छलूनाशनस्पर्श क्षेत्रे वा यदि वा स्यने । पशुधर्मिषु पापेषु म्लेच छेषु त्वं भविष्यसि ॥" उपस्पर्श शिरः प्राक्ष्य संशुद्धौ जायते द्विजः ॥" (भारत ११८४।१५) "आममासं घृतं क्षौद्रं स्नेहाश्च फलसम्भवाः । वृहत्पराशरसंहिता (१० ) में लिखा है,- ग्लेच्छभाण्डस्थिता ते निष्क्रान्ताः शुचयः स्मृताः ॥" "हिमपर्वतविध्याद्रौ विनशनप्रयागयोः । (बृहत्पराशर ६ अ०) मध्ये तु पावनो देशो म्लेच छ देशस्ततः परम् ॥" म्लेच्छको भोज्य द्रष्यादि छूने अथवा किस क्षेत्र अर्थात् हिमालय और विन्ध्याद्रिके मध्य तथा विन- | और स्थलादिमे उसके साथ संस्पर्श हो जानेसे द्विज शन ( सरस्वतीके अन्तर्धानप्रदेश ) और प्रयागके मध्य ध्यक्तिको चाहिये. कि मस्तक पर जल छिडक कर शन वत्तों जितने स्थान हैं, सभी पुण्यदेश हैं, इसके वाहरका हो लें। देश म्लेच्छदेश है। ___ कच्चा मांस, धो, मधु और फलोत्पन्न कोई भी स्नेह पदार्थ म्लेच्छके वरतनसे निकाल लेनेसे ही शुद्ध हो

  • "वशे स्वायम्भुवस्पाठीदनो नाम प्रजापतिः ।

जाता है। मृत्योस्तु दुहिता तेन परिणीताति दुर्मुखी ॥ म्लेच्छकन्द (सं० पु०) म्लेच्छप्रियः कन्द इति मध्यपद- सुतीर्था नाम तस्यास्तु वेनो नाम सुतः पुरा। लोपिकर्मधा० । लशुन, लहसुन । अधर्मनिरतः कामी वल्लवान् बसुधाधिपः॥ म्लेच्छजाति (सं० स्त्री० ) म्लेच्छस्य जातिरिति ६-तत् लोकेऽप्यधर्म कृज्जातः परमार्यापहारकः । पुरुषः, म्लेच्छरूपा जातिरिति वा। गोमांस खानेवाला, धर्माचारप्रसिद्धार्थ जगतोऽस्य महर्षिभिः॥ दहुविरुद्ध बोलनेवाला और सर्वाचारविहीन वर्ण। अनुनीतोऽपि न ददावनुक्षां स यदा ततः॥ "गोमांसखादको यस्तु विरुद्ध बहु भाषते । शापेन मारयित्वै नमराजकभयाहिताः । भमन्यु झणास्तस्य वलाहे हमकल्मषाः ॥ सर्वाचारविहीनश्च म्लेच छ इत्यभिधीयते ॥" तत्क्रायान्मथ्यमानात्तु निपेतुम्लेंच छजातयः ॥ (प्रायश्चित्ततत्त्व) शरीरे मातुरंशेन कृष्पाञ्चनसमप्रभाः ॥" अमरसिंहने किरात, शवर और पुलिन्द जातिको (मत्स्यपु० १३१३-८) म्लेच्छ कहा है। Vol. XVIII 104