पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४१७

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४१४ म्लेच्छदेश-य ___"मेदाः किरातशवरपुलिन्दा म्लेच्छजातयः ।" (अमर) । "चरति कृष्णसारस्तु मृगो यत्र स्वभावतः । मनुमें लिखा है, कि पौण्डक, औड़, द्राविड़, कावाज, स ज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्ततः परम् ॥ जवन, शक, पारद, पलव, किरात, दरद, खश भादि क्षत्रिय (मनु २२२३) जाति अपने धर्मोके परित्याग करने तथा ब्राह्मणों द्वारा जिस देशमें कृष्णसार मृग स्वभावतः विचरण करता छोड़े जानेसे म्लेच्छजातित्वमें परिणत हुई थी। है वह देश यज्ञिय है अर्थात् पुण्यदेश है। पतद्भिन और "पौयडाकाञ्चौद्रविड़ाः कान्धोजाः जवनाः शकाः । सभी देश म्लेच्छदेश कहलाते हैं। पारदाः पहवाश्चीना: किराता: दरदाः खशाः॥ म्लेच्छन (सं० क्लो०) १ अस्फुटकथा, गूढ वात । २ मुखवाहूरूपजानां या लोके जातयो वहिः। म्लेच्छ भाषामें कथन, गंदी भाषा बोलना। म्लेच्छबाचश्चार्थवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥" | म्लेच्छभोजन (सं० पु०) भुज्यने यदिति भुज् कर्मणि (मनु०१०४४४५) | ल्युट म्लेच्छानां भोजनं। १ यावक, बोरो। २ गोधूम, म्लेच्छदेश (सं० पु० ) म्लेच्छानां देशः म्लेच्छप्रधानो देशो | वा । चातुर्वण्यव्यवस्थादिरहित स्थान । पर्याय- म्लेच म्लेच्छमण्डल (सं० क्ली० ) म्लेच्छानां मण्डलं समूहोऽत्र । म्लेच्छदेश। प्रत्यन्त। जिस स्थानके मनुष्य शिष्टाचारविहीन होते म्लेच्छमुख (सं० क्लो०) म्लेच्छे म्लेच्छदेशे मुखमुत्पत्ति- अथवा असंस्कृत वोलते है उस स्थानको म्लेच्छस्थान रस्य । ताम्र, ताँवा । वा म्लेच्छदेश कहते हैं। म्लेच्छाख्य (सं० क्लो० ) १ ताम्र, ताँवा । २ ग्लेच्छ । ___"चातुर्व पर्यव्यस्थानं यस्मिन् देशे न विद्यते। | म्लेच्छाश (सं० पु०) ग्लेच्छरश्यते इति अश-कर्मणि घञ् । ' म्लेच्छदेशः स विज्ञेय आर्यावर्तस्ततः परम् ॥" (स्मृति) म्लेच्छभोजन, गेहूं। जहां वर्णाश्रम धर्मका पालन नहीं होता तथा जहां म्लेच्छास्य (सं० क्ली० : म्लेच्छे म्लेच्छदेशे भास्यमुत्पत्ति- ब्रह्मचर्य, गाईस्थ, वानप्रस्थ, और भिक्ष ये चार आश्रम | रस्य। ताम्र, ताँवा । नहीं हैं, वही स्थान म्लेच्छदेश है। भगवान् मनुने । ग्लेच्छित (सं० क्ली०) म्लेच्छ-देश्योको त। म्लेच्छ. भी कहा है- भाषा, अपशब्द। गेहूं। य-हिन्दी वर्णमालाका २६वां अक्षर। इसका उच्चारण-1 महामोक्षप्रद नित्यामष्टसिद्धिप्रदायिनीम् । स्थान तालू है। यह स्पर्श वर्ण और ऊष्म वर्ण के बीच एवं ध्यात्वा यकारन्तु तन्मत्र दशधा जपेत् ।।" • का वर्ण है, इसीलिये इसे अन्तःस्थ वर्ण कहते हैं। इसके (वर्णोद्धारतन्त्र) उच्चारणमें कुछ आभ्यन्तर प्रयत्नके अतिरिक संवार, नाद इस वर्णकी अधिष्ठात्री देवी धूम्रवर्णा, अति भयङ्करी, और घोष नामक वाह्य प्रयत्न भी होते हैं। यह अल्प। षड़,भुजा, रक्तलोचना, रक्तवस्त्रपरीधाना, नानालङ्कार- प्राण है। इसको मात्रा कुण्डलिनीखरूप है तथा इस भूषिता, अष्टसिद्धि, मोक्षदायिनी और नित्या है। इस वर्णमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर रहते हैं। देवीका ध्यान कर इसका मन्त्र (यकार) दश बार जपना इस वर्णका ध्यान- होता है। पीछे इसे प्रणाम करना उचित है। यह वर्ण "धूम्रपर्यो महारौद्रीं षड़ भुजा रक्तलोचनाम् । सदा त्रिशक्ति और त्रिविन्दु युक्त है। रक्ताम्बरपरीधानां नानालङ्कारभूषिताम् ॥