पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४१९

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यकृत रहता है और जिसकी क्रियासे भोजन पचता है। संस्कृत लक्षणं तस्य वक्ष्यामि तेनं तच्चापि लक्षयेत् । पर्याय-कालखण्ड, कालखञ्ज, कालेय, कालक, करएडा, क्षीयते तेन मनुजो मृत्युराशु प्रवर्तते ॥ महास्नायु । ऋगभाष्यमें सायणाचायने लिखा है,। वमिक्लभोस्तथोदारो हलासः श्वसनं भ्रमः । कि हृदयके समीप वर्तमान कालमांस विशेषको यकृत् दाहोऽसचिस्त षा मूछों कपठे दाहः शिरोळ्यथा ॥ कहते हैं। हच्छूलञ्च प्रतिश्याया ष्ठीवन कटकासह । वैद्यकमें इसका लक्षण इस प्रकार देखने में आता है, सशल्य' हृदिशूलश्व निद्रानाश: प्रलापतः ।। "अधो दक्षिणतथापि हृदयाद् यकृतः स्थितिः । हृदये मन्यते जाड्य उदरं गर्जते भृशम् । तत्तु रखकपित्तस्य स्थान शोगितजं मतम् ॥ एतलिङ्ग विजानीयात् यकृतकोष्ठे च वक्षसि " "प्लीहामयस्य हेत्यादि समस्तं यकृदामये। (हारीत चिकि० ४०) किन्तु स्थितिस्तयो शेयो वामदक्षिणापार्श्वयोः॥" भावप्रकाशमें लिखा है, कि लोहा और यकृत् ये दोनों (भावप्र०)। एक ही कारणसे हुआ करते हैं। हदपके वाम पार्श्वमें हृदयके नीचे यकृत् रहती है। रक्षक पित्तका प्लीहा और दक्षिण पार्श्वमें यकृतका स्थान निर्दिष्ट है। आश्रय स्थान यकृत् है। यह यकृत् रक्तसे उत्पन्न विदाहिद्रष्य (कुलथी कलाय और सरसोंका साग आदि) होती है। और अभिष्यन्दी अर्थात् भैसके दही खानेवाले मनुष्यके इसका लक्षण-प्लीहा और यकृत् इन दोनों रोगोंके रक और कफ विगड़ कर यह रोग हुआ करता है। यह हेतुलक्षणादि एक-से हैं। प्रभेद इतना ही है, कि लोहा रोग होनेसे रोगीका शरीर पीला और अवसन्न हो जाता वाई मोर और यकृत् दाहिनी ओर रहती है। प्लीहा और है, थोड़ा थोड़ा ज्वर आता, रुचि घट जाती और वलका यकृत् सवोंको होता है, किन्तु जब यह बढ़ता है, तव हास होता है। इस रोगमे श्लेमिक और पैत्तिक उपद्रव उसे रोग कहते हैं। उस समय उसकी चिकित्सा करना होते हैं। (भाषप्र० प्लीहायकृदधि०) उचित है। साधारणतः देखनेमें आता है, कि बहुत दिनके हारीतसंहितामें लिखा है, कि रक्त वायु द्वारा प्रेरित ज्वरीको ही प्लोहा और यकृत् होती है। यकृत्की हास और वृद्धि हाथसे जानी जा सकती है। हो कर कफ द्वारा गाढ़ा होता और पीछे पित्त द्वारा परि प्लीहा शब्दमें वैद्यक मत देखो। पक्क हो कर यकृतरूपमें परिणत होता है । अर्थात् प्राणीके | वत्तमान पाश्चात्य चिकित्साशास्त्रके मतसे बरुत् शरीरमें जो यकृत् रहती है वह पूर्वोक्त लिदोषसे दूषित ( liver ) शरीरके भीतरका एक प्रधान यन्त है। इसमें हो कर बढ़ जाती है। यकृत्के बढ़ जानेसे मनुष्य धीरे पाचन-रस रहता है और इसकी क्रियासे भोजन पचता धोरे दुवला पतला होने लगता है। यदि उसका प्रति- तथा कोष्ठ परिष्कार रहता है। इस यन्त्रकी क्रियामें कार समय पर न किया जाय, तो निम्नोक लक्षण दिखाई लक्षण्य दिखाई देनेसे शरीरमे जो सब उपन्द्वसूचक देनेके बाद रोगी कराल कालके गालमें फंस जाता है। रोग उत्पन्न होते हैं नीचे उसका संक्षिप्त विवरण दिया वमि, थकावट मालूम होना, डकार आना, दम फूलना, जाता है। भ्रम, दाह, अरुचि, तृणा, शिरमें दर्द, खांसी, हृदयमें कभी कभी यकृतमें दर्द (Hepatalgia) मालूम सशल्य शूलवेदना, निद्रानाश, प्रलाप, हृदयको जड़ता होता है। स्नायुप्रकृतिके सभी मनुष्योंको इसी प्रकार दर्द और पेट बोलना आदि लक्षण दिखाई । ये सब होते देखा जाता है। पित्तकोषमे पित्तपत्थर होनेसे भी लक्षण यदि दिखाई दें, तो जानना चाहिंध, कि रोगीकी वेदना होती है। यहत् बढ़ गई है। यकृत् किया .व्यतिक्रम होनेसे जण्डिस वा न्यावा "वाते नोदीरितं रक्तं कफेन च घनीकृतम् । रोग (Jaundice वा Ietcrus) उत्पन्न होता है । पित्तके कम निकलने या रुक जानेके कारण रक्तमें अधिक पित्त . पित्तेन पाकतां प्राप्त विदोषसंश्रित यकृत् ॥