पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४२१

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यकृत आमाशय होते हुए भी देखा जाता है । तैलास पदार्थमे ! ( Stimulent ) का प्रयोग करे । यदि रक्त वहता हो तो अरुचि होती है तथा खट्टी डकार आती है । पसीने, राल, | उसे किसी प्रकार वन्द कर देना उचित है। दूध और आंसू पित्त दिखाई देता है। रक्तमें पित्ताम्ल रिसि पि रहनेके कारण खुजली आदि होती है। हृपिण्डकी क्रिया धीमी पड़ जाती है। मस्तिष्क भी विगड़ जाता है; ए नाइट्रोमिडिल १०चुद आँखके सामने कभी कभी पीली रेखा (Xanthopsy ) एमन म्युरिएट ५ ग्रेन भी देखी जाती है। यदि रोग शीघ्र चंगा न हो, तो सवकस् गरेक्ससाइ आध डाम अचैतन्य वा आँतसे रक्तश्राव द्वारा रोगीको मृत्यु इन्फ्यु जन जेनसिएन १ औस होती है। एकमात्र दिनमें ३ वार और रातमें निम्नोत गोलीका मैलेरिक काकेसिया, सीसक द्वारा विषाक्तता, एडि- सोनेके पहले सेवन करे। रिसि पि सन्स डिजिज, हरित्पीड़ा (Chlorosis) और कर्कट रोग-' पडफिन रेजिनि आध ग्रेन में चमड़े की विवर्णता देख कर यदि भ्रम हो जाय, तो पिल कलोसिन्थ को ३ प्रेन मूत्र और कक्षकटिभाको परीक्षा करके भ्रान्ति दूर करनी चाहिये । अवरुद्धता-जनित पीड़ामें मूत्रमें पित्ताल रहता हेपाटिक कजेश्चन ( Hypatic Congestion ) वा है, मलमें पित्त नहीं रहता। द्वितीय प्रकारसे उत्पन्न यकृतका रक्ताधिक्य-अधिक मात्रामें शराव वा गुरुपाक जण्डिसमें चमड़ा थोड़ा पीला दिखाई देता है, मलमें द्रव्य भोजन और अति भोजन ; शरीरमें अत्यन्त तापा थोड़ा बहुत पित्त रहता है ; मूत्रमें ल्युमिन् और टाइ- धिक्य वा उस अवस्थामें शीतवातसंस्पर्श ; प्रदाहकी रोसिन देखनेमें आता है । रक्तस्राव और विकारका प्रथमावस्था ; हठात् चोट लगना ; ऋतु या अशका रक्त लक्षण उपस्थित होनेसे भावी फल अशुभकर है गर्भावस्था. नाव बंद होना ; हपिण्ड वा फुसफुसकी पुरानी पीड़ा में यह पीड़ा जान ले लेती है। डक्तके प्रदाहसे जो पोड़ा आदि कारणोंसे हिपाटिक भेनमें रक बहुत हो जाता है। होतो वह उतना कष्ट नहीं देती। इस समय यकृत् कुछ बड़ी और कठिन होती तथा चिकित्सा-अवरुद्धता रहनेसे अन्त्र, त्वक् और मूत्र- काटनेसे रक्त वहुत निकलता है। यकृत् धमनीमें अधिक यन्त्रकी क्रियाको बढ़ा देना उचित है । सुचारुरूपसे रक्त होनेसे लोव्युलके चारों ओरका स्थान लाल होता त्वक्रिया करने तथा खुजली आदिको हटाने के लिये | है और रक्तसे भर जाता है। हिपैटिक भेनमें अधिक रक्त उष्ण वाथ वा एल्फेलाइन बाथ देना चाहिये। कोष्ठको रहनेसे लोव्युलका मध्यस्थान आरक्तिम दिखाई देता है। साफ रखनेके लिये मृदुविरेचक और मिनरल वाटरका यह दोर्घकालस्थायी होनेसे उक्त भेजकी शाखा-प्रशाखा प्रयोग करे । स्वास्थ्यवृद्धिके लिये आयरन और अन्यान्य , तसे भर जाती है ; लोव्युलका वहिर्भाग ( जहां पोटाल टनिक हितकर है। अभ्यस्त कोष्ठ-वद्धताके दूर करने. शिरा है ) रक्तशून्य और वसायुक्त तथा उनके बीच बीच- के लिये प्रति दिन खानेके वाद ५।१० ग्रेन आक्सत्वाइल में पित्तनली देखी जाती है। इस प्रकारको यकृतको तथा ब्लुपिल, टैरेकसेसाई नाइट्रोम्युरियेट पसिड डिल, काटनेसे वह जायफलके सदृश मालूम पड़ती है, ईसीसे इसको Nutmeg-liver कहते हैं। यह पीला, सफेद एमनस्युरिएट, पडप्लिन, वैपटिसिन आदि पित्तनिःसारक | और लाल होता है। औषधका प्रयोग करे । यकृत्में रक्त जमा रहनेसे वहां | फोर्मेण्टशन, सिनापिजम और पुलटिश देना उचित है। यकृत्के स्थानमें वेदना; भारी और आकृष्टता मालूम इस समय तरल और वलकारक द्रश्य रोगीको खाने दे। होती है। खानेके वाद वाई करवट सोनेसे वह वेदना चरबी और शक्कर मिली हुई वस्तु खाना मना है। दुर्व- वढ़ती और कभी कभी दाहिने 'धे तक फैल जाती है। लता और टाइफेड लक्षण दिखाई देनेसे बलकर औषध | रोगके अधिक दिन रह जानेसे प्लोहा भी बढ़ जाती है।