पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४२५

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.४२२ यकृत - बहुतोंके मतसे लोषिउलके मध्यवती कोषसंस्थानमे | यकृत् झिल्ली कोमल और शस्यवत् अंची (Granular) जलन देती है। वह जलन यदि बहुत दिन रह जाय, तो दिखाई देती हैं। लोविउल स्थित कोष और पित्तनालीको संकुचित कर (३) पोर्सल भेन या उसकी शाखाये जलन होने देता है। कोई कोई कहते हैं, कि प्रथमावस्थामें पित्त- से सिरोसिस हो सकता है। कोषों में अपकृष्टता होती है। पीछे उसके धीरे धीरे मन (४) पुरानी पेरि-हेपेटाइटिस पीडामें यकृत छोटी होनेसे तदनुसार चारों बगलका संस्थान अर्थात् कैप- हुआ करती है।. स्थुल संकुचित हुआ करता है। ३०से ले कर ५० वष (५) उपदंश-रोगके कारण सिरोसिस होनेकी के पुरुषोंके मध्य ही यह रोग होते देखा जाता है। सम्भावना है। ____ यकृत् अर्धायत, खर्च और गोलाकार तथा पाण्डुवर्ण- (६) बार वार मलेरिया ज्वर होनेसे अथवा अन्नमें का दिखाई देता है। यकृत्का कैस्पिटल मोटा और क्षत रहनेसे यकृत् छोटी होती है जिसे डाकृर रोकि- मजबूत होता तथा सहजमें नहीं फटता। कहीं कहीं वह रानष्कि (Dr. Rokitansky), रेड पनफि । Red atro. पेरिटोनियमके साथ मिला हुआ देखा जाता है। कटा phy ) तथा डाकृर रिक्स ( Dr, Frerichs ) क्रोनिक हुआ भाग देखने में कुछ पांशुवर्ण वा पीताभ होता है; एरफो ( Chronic strophy ) कहते हैं। वीच वीचमें शुभ्रवर्ण और रज्जुषत् झिल्ली दिखाई देतो यकृत् बढ़ जाने के कारण रोगी दक्षिण हाईपोकण्डि- है। पोटील शिराकी छोटो छोटी शाखा प्रशाम्बा और येक रिजनमें भार और अस्वच्छन्दता अनुभव करता है। कैशिकागुलि अवरुद्ध वा विलुन्त होती हेपैटिक धमनी कभी कभी वमन, डकार और अजीर्णता होती है। पोर्टल फैली रहती और उससे नई नई कौशिका उत्पन्न हो कर शिरा की अवरुद्धता के कारण उदरी रोग होता है। नवोत्पादित झिल्लोमें फैल जाती है। अणुवीक्षण द्वारा पोटील शिराका मुख अवरुद्ध होनेसे उसका रक इपिगा- प्रोक भेन द्वारा इनफिरियाके भिनाकेभामें जाता जिससे कुछ लोविउल संकुचित, शुभवर्णके और उनके कोष विलुप्त दिखाई देते हैं। लोविलकी परिधिसे वे सव उदरकी दक्षिण पास्थि स्फीत होती है। रोगके अच्छी तरह दिखाई देने पर स्पर्श द्वारा यकृत् लोष्ट्राकार मालूम परिवर्तन आरम्भ होते हैं। दूसरे दूसरे लोविउल पोले होती है तथा उसमें कभी कभी फ्रिकशन शब्द सुना दीख पड़ते हैं, क्योंकि उनके कोपोंमें कुछ पित्त रहता जाता है। उदरामय, रक्तस्राव, प्लीहाविवृद्धि, अर्श अथवा है। प्रथमावस्था में लीभर स्वाभाविकसे बड़ा होता है। जण्डिस् दिखाई देता है। रोगीका शरीर शीर्ण, चर्म- इस पीड़ाके साथ चरवो और एमिलयेड अपकृपता वरी- शुष्क, मुखश्री मृत्वर्ण और कभी कभी चमड़े के ऊपर मान रहनेसे यकृतको खर्वता दिखाई नहीं देती। उपरोक्त पपिउयाका चिह्न नजर आता है। मूत्रमें युरिक एसिड, कारणोंको छोड़ कर अन्यान्य कारणोंले यकृत्के खर्च युरेटस तथा कहीं कहीं युरिरिथन् अधक्षेप होते देखा होनेसे उसके प्रदेशमें उक्त प्रकारकी उच्चता देखी नहीं जाता है। रोग दीर्घकालस्थायी होनेसे यकृत्मे कोई जाती। विशेष यन्त्रणा नहीं रहती। किन्तु उसके साथ पेरि- ___ अन्य जिन सब कारणोंसे यकृत् खर्ग हो सकती है | टोनाइटिस उपस्थित रहनेसे दवाव डालने पर दर्द उनका संक्षेपमें वर्णन करना आवश्यक है। मालूम होता है। . (१) हृत्पिण्डकी पीड़ाके कारण हेपैटिक भेनमें | ___ यह रोग दीर्घकालव्यापी है। धातुदौर्बल्य, विकार- भप्रवल रक्ताधिक्य होनेसे लोविउलके मध्यवत्तीं स्थान | युक्त जण्डिस, फुसफुसकी पीड़ा, प्रबल पेरिटोनाइटिस क्षयको प्राप्त होता है और उससे यकृत् खा हो जाती है। और अन्नसे रक्तस्राव आदि उपसर्ग दिखाई देनेसे रोगी- (२) डा० माचिसनका कहना है, कि मदिरा नहीं की मृत्यु होती है । प्रथमावस्थामें रोगनिर्णय करना बहुत पीनेसे भी एक प्रकारका सिरोसिस होता है, जिससे | कठिन है, पीछे धीरे धीरे यकृत्के बढ़नेसे जब उसके