पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४३४

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. यक्ष्मा वैद्य लोग बड़े यत्नसे इस रोगको पूजते हैं इसीसे। जलहीन नदी और सूखा पेड़ तथा पवन, धूम और दावा- . इसका नाम यक्ष्मरोग पड़ा है। यह रोग पहले राजा नल आदि स्वप्नमें दिखाई पड़ता है। चन्द्रमाको हुआ था इसी कारण इसे राजयक्ष्मा कहते | यक्षमरोगका लक्षण-इस रोगमें कंधे और पोठमें हैं। यह क्रियाक्षय करता है इसलिये क्षय तथा शारी- पीड़ा, हाय पांवमें दर्द तथा ज्वर होता है । यही तीन रिक रसादि सोखता है अतः इसे शोप भी कह सकते हैं। लक्षण प्रायः हुआ करते हैं। महामुनि चरकने इन्हीं यक्ष्मरोगको सम्प्राप्ति-कफप्रधान त्रिदोष द्वारा तोनोंका उल्लेख किया है। किन्तु सुश्रुतमें छः लक्षण कहे रसवहा सभी धमनियां जव रुद्ध होतो तव धातु क्षीण | हैं। यथा-भक्ष्य द्रध्यमें अरुचि, ज्वर, श्वास, कास, हो कर शोष रोग उत्पन्न होता है, अथवा अतिशय खो- रक्तोद्गोरण तथा स्वरभेद । इन सब लक्षणोंके दिखाई प्रसंग द्वारा पहले शुक्रधातु अति क्षीण हो कर शोष रोग देनेसे राजयक्ष्मरोग हुआ है, ऐसा जानना चाहिये। . उत्पन्न करता है। रसवहा धमनीके रुद्ध होनेसे रस दोपके भेदसे भिन्न भिन्न लक्षण हैं यथा-यक्ष्मरोग क्षय किस प्रकार हो, इसका कारण चरकमुनि इस प्रकार वातोल्वण होनेसे स्वरभेद, शूल तथा स्कन्ध और पार्श्व- निश्चय कर गये हैं, सभी स्रोतोंके वन्द होनेसे हृदयका इस देश संकुचित होता है। पित्रोल्त्रणमें ज्वर, दाह, अती- विदग्ध अर्थात् दूषित कासके वेगसे ऊपरको ओर जाता सार तथा रक्तोद्गीरण, कफोल्वणसे मस्तकका गुरुत्व, है तथा कई प्रकारसे वाहर निकलता रहता है । स्रोत बन्द भक्ष्यद्रध्यमें अरुचि, कास तथा कण्ठभेद हुआ करता है। हो जानेसे विना कासरोगके भी कुपित वायु द्वारा रस! यक्ष्मरोग सान्निपातिक होने पर भी दोपको उल्व- सूखता है। फिर यह भी लिखा है, कि स्रोत बंद होनेसे णताके अनुसार वातादिका पृथक लक्षण दिखाई देता है, धातुक्षय तथा धातुक्षय होनेसे वायु कुपित हो जाती है। किन्तु सुध्रुतमें कहा है, कि यक्ष्मरोग एकमात्र सन्नि- यह सब अनुलोमक्षय है। प्रतिलोमक्रमसे भी क्षय हुआ, पातात्मक है, फिर भी इससे वातादि दोषमें जो दोप करता है। प्रवल होगा उसका लक्षण स्पष्ट दिखाई देगा। असाध्य प्रतिलोमक्रमका विषय इस प्रकार कहा गया है। जो यक्ष्मरोगका लक्षण-उक स्वरभेदसे ले कर कण्ठ तक बड़े स्त्री-प्रसङ्ग हैं पहले उन्होंका शुक्रक्षय होता है। शुक- ग्यारह अथवा सुश्रुतके अनुसार छः या ज्वर, कास और क्षय होनेसे मजा क्षीण, मजा क्षीण होनेसे अस्थि, इसी रतोद्गोरण ये तोन लक्षणवाले यक्ष्मरोगीकी चिकित्सा प्रकार क्रमशः मजासे रस तक सभी धातु नष्ट हो जाती करना निष्फल है। क्योंकि जिसमें ये सव लक्षण हैं हैं। इस पर ऐसा प्रश्न उठ सकता है, कि कारणके । वह यक्ष्मरोगी कदापि आरोग्य नहीं हो सकता। इसमें अभावसे कार्यका क्षय होना भी सम्भवपर है। कार्यभूत विशेषता यह है, कि उक्त ग्यारह या छः किंवा तीन लक्षण- शुकक्षय होनेसे कारणभूत मजा आदि किस प्रकार सुग्ना | युक्त यक्ष्मरोगीका अगर मांस तथा वलक्षय हो, तो सकती है ? इसके उत्तरमें इतना ही कहना पर्याप्त होगा, वह हरगिज अच्छा नहीं हो सकता। अर्थात् इसमें कि शुक्रक्षय होनेसे वायु कुपित हो कर मनुष्योंको शोष- | कितनी भी चिकित्सा क्यों न की जाय सब वेकाम है। प्रस्त बना देती है। किन्तु यदि उपरोक्त सभी लक्षण दिखाई पड़े तथा रोगी- ___ यक्ष्मरोगका पहला रूप-यश्मरोग होनेसे पहले | का वल और मांस क्षोण न हो तो उसकी विधिपूर्वक निम्नोक्त सभी लक्षण दिखाई देते हैं। इससे पहले श्वास, | चिकित्सा करनेसे फायदा पहुंच सकता है। . . शरीरवेदना, कफनिष्ठीवन, तालुशोप, वमि, अग्निमान्य, जो यक्ष्मरोगी बहुत ज्यादा भोजन करता फिर भी मत्तता, प्रतिश्याय, कास, निद्रा तथा रोगीकी दोनों आखें वह दुर्वल ही बना रहता है, उसका यह रोग असाध्य • शुक्लवर्ण हो जाती हैं। मांस भोजन और मैथुनकी बड़ी है। जिस यक्ष्मरोगोको अतिसार हुआ है अथवा अण्ड- इच्छा रहती है। स्वप्नमें काफ, शुक, शजारु, मयूर ! कोप और शरीर सूज आया है उसे भी असाध्य जानना गृधिनी, वानर और ककलास द्वारा वाहित होता है तथा । चाहिये। कारण, इस रोगमें अतिसार होनेसे उसके